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इतिहास में कभी नहीं हुई इतनी गर्म जुलाई, अमेरिका और यूरोप तक झुलसे तो बढ़ी टेंशन; डरा रहे वैज्ञानिक

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नई दिल्ली
दिल्ली-एनसीआर समेत उत्तर भारत के बड़े इलाके में भले ही इस साल और खासतौर पर जुलाई में प्रचंड गर्मी नहीं पड़ी है, लेकिन दुनिया में बुरा हाल रहा है। इसके चलते इस साल जुलाई का महीना अब तक के इतिहास में सबसे गर्म रहा है। मौसम वैज्ञानिकों ने यह अनुमान जताया है। अभी इस महीने का अंत होने में 4 दिन बचे हैं,लेकिन उससे पहले ही इसे अब तक की सबसे गर्म जुलाई का खिताब मिल चुका है। गर्मी ने दुनिया भऱ के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। इसके चलते कम गर्मी वाले उत्तर अमेरिका, चीन और यूरोप जैसे इलाकों में बुरा हाल रहा है।

कई जगह तापमान 50 डिग्री सेल्सियस के करीब तक पहुंच गया तो लू से भी लोग पस्त रहे। इसका असर लोगों की सेहत पर भी पड़ा है और लोगों के बीमार होने के मामले भी सामने आए हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि लंबे समय से क्लाइमेट चेंज की चेतावनी दी जा रही थी, लेकिन अब यह हमारी आंखों के सामने ही आ गया है। प्रकृति में भीषण बदलाव हो रहे हैं और उसका ही परिणाम इस तरह की गर्मी है। विश्व मौसम संगठन से जुड़े क्रिस हेविट ने कहा कि यह गलत ट्रेंड चिंता की बात है। लेकिन अब ऐसा लगता है कि इसे टालना मुश्किल होगा और आने वाले सालों में इसी तरह भीषण गर्मी झेलनी होगी।

वैश्विक औसत तापमान में भी तेजी से इजाफा हो रहा है। इसी का नतीजा है कि ठंडी वाले इलाकों में भी लू चल रही है। क्रिस हेविट ने कहा कि यह अलार्म है और हमें सचेत होकर क्लाइमेट चेंज से निपटने के लिए प्रयास शुरू करने देने चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुटारेस ने भी कहा कि दुनिया भर में मौसम बदल रहा है। हमें क्लाइमेट चेंज की हकीकत को समझना होगा, वरना यह तबाही भरे दृश्यों की शुरुआत हो सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का भी कहना है कि इतनी भीषण गर्मी चिंता की बात है। उन्होंने कहा कि इसका असर आर्थिक गतिविधियों पर भी पड़ रहा है।

अमेरिका ने पेड़ लगाने को जारी किया फंड
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि भीषण शीतलहर के चलते अमेरिका को सालाना 100 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ रहा है। इससे बचाव के लिए अमेरिका ने एक अरब डॉलर का फंड तत्काल जारी किया है ताकि शहरों और कस्बों में पौधारोपण किया जा सके। वैज्ञानिकों का कहना है कि अमेरिका और यूरोप में लू चलना सामान्य बात नहीं है। यह प्राकृतिक क्रिया नहीं है बल्कि अत्यधिक मानव गतिविधियों की वजह से प्रकृति में यह बदलाव आया है, जो आने वाले दिनों के लिए एक चेतावनी होगा।