नई दिल्ली
आषाढ़ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा व द्वितीया की संधिवेला और आर्द्रा नक्षत्र की शुभ छाया में काशी के ऐतिहासिक जगन्नाथ मेला का शुभारंभ हो गया। मध्य रात्रि के बाद विधि-विधान से आरती-पूजन हुआ। पूजन के बाद प्रभु रथ पर सवार हुए। मंगला आरती के बाद झांकी दर्शन और उसके साथ मेला शुरू हो गया।
ग्रहों से मुक्ति के लिए भक्त पहुंचते हैं लेट-लेटकर:
मंदिर का कपाट सुबह पांच बजे खोला जाता है। इसके बाद भगवान जगन्नाथ की आरती की जाती है। मंदिर में अंदर प्रवेश करने के लिए 14 सीढ़ियां हैं। यहां से भक्त लेट-लेटकर आगे बढ़ते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से नुकसान पहुंचाने वाले ग्रहों से मुक्ति मिलती है।
साल में एक बार भगवान करते हैं प्रत्यक्ष स्नान-
भगवान जगन्नाथ साल में एक बार बरसात के मौसम में प्रत्यक्ष स्नान भी करते हैं। मान्यता है कि जब प्रभु पानी से नहाते हैं तो उन्हें बुखार आ जाता है। इसके बाद 15 दिन तक वे आराम करते हैं। इस दौरान उनके दर्शन की मनाही होती है। पूजा की विधि भी बदल जाती है। इस दौरान उन्हें सिर्फ सफेद फूल चढ़ाया जाता है। सफेद कपड़े पहनाए जाते हैं।
सोने की कुल्हाड़ी भगवान को स्पर्श कराते हैं-
पंडितों का कहना है कि रथ यात्रा के लिए भगवान जगन्नाथ की आज्ञा लेनी होती है। अक्षय तृतीया के दिन वस्त्र, माला और सोने की कुल्हाड़ी स्पर्श कराई जाती है।
जानें कैसे हुई थी शुरुआत
सात वार-नौ त्योहार की परंपरा वाली काशी में रथयात्रा मेला से उत्सवों की शुरुआत मानी जाती है। 17वीं सदी के उत्तरार्ध में शुरू हुई यह परंपरा तीन सदी से अक्षुण्ण और निर्बाध बनी हुई है। तब जगन्नाथपुरी से निर्वासित एक अनन्य भक्त ने काशी में रथयात्रा मेले के बीज डाले थे।
उस समय ओडीसा की जगन्नाथ पुरी के सेवक और रथयात्रा महोत्सव के प्रबंधक ब्रह्मचारी जी किसी बात पर पुरी नरेश से नाराज होकर वहां से निकल पड़े और काशी आ पहुंचे। कुछ समय बाद नरेश को ब्रह्मचारी जी का संकल्प याद आया कि वह जगन्नाथ महाप्रभु के प्रसाद के अलावा कुछ और ग्रहण नहीं करते। चिंता में नरेश ने हर रोज पुरी से काशी महाप्रसाद भेजने की व्यवस्था की। उस काल में पुरी से कांवर पर प्रसाद लेकर हरकारे काशी आते थे। कई बार प्रसाद पहुंचने में हफ्तों की देर हो जाती थी, ब्रह्मचारी भूखे रह जाते थे। 1790 में ब्रह्मचारी के स्वप्न में स्वयं जगन्नाथ महाप्रभु आए और उन्हें काशी में प्रतिष्ठापित करने का आदेश दिया। ब्रह्मचारी जी ने इस स्वप्नादेश की चर्चा भोसला स्टेट के पंडित बेनीराम और दीवान विश्वंभरनाथ से की। उनके प्रयासों से अस्सी क्षेत्र में जगन्नाथ महाप्रभु को सकुटुंब स्थापित किया गया और वर्ष-1802 में रथयात्रा मेले की नींव पड़ी।
काशी में मौसी के घर नहीं, जाते हैं ससुराल
जगन्नाथपुरी की परंपरा में भगवान स्वस्थ होने के उपरांत घूमने के लिए मौसी के घर जाते हैं। काशी ने इस परंपरा में भी थोड़ा सा परिवर्तन किया है। ‘यह बनारस है’ में स्व. विश्वनाथ मुखर्जी लिखते हैं कि काशी में रथयात्रा महोत्सव में स्वास्थ्य लाभ के बाद प्रभु अपनी ससुराल आते हैं।