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यूपी निकाय चुनाव में बसपा का दलित-मुस्लिम दांव न आया काम, 2 से पहुंची शून्य पर

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लखनऊ
बसपा का मुस्लिम दांव विधानसभा के बाद निकाय चुनाव में भी काम न आया। निकाय चुनाव में सबसे अहम मानी जाने वाली मेयर की 17 सीटों को पाने के लिए 11 पर मुस्लिम उम्मीदवार उतार दिए, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। इतना ही नहीं पिछले चुनाव में मेरठ और अलीगढ़ मेयर सीट जीतने वाली बसपा के हाथ से यह दोनों सीटें भी खिसक गईं।

बसपा को मेरठ, अलीगढ़, सहारनपुर, मुरादाबाद और प्रयागराज मेयर सीट पर बहुत उम्मीदें थीं। वह मानकर चल रही थी अतीक अहमद हत्याकांड का फायदा उसे मिलेगा और दलित मुस्लिम वोटों का गठजोड़ उसे जीत दिलाने में कारगर होगा। लेकिन मेरठ सीट उसके हाथ से छिटकी ही नहीं बल्कि वहां चौथे स्थान पर पहुंच गई। अलीगढ़ में मुस्लिम उम्मीदवार सलमान को उतार कर सीट बरकरार रखने की कोशिश बेकार गई। यहां वह तीसरे स्थान पर रही। सहारनपुर में मुस्लिम समुदाय के बड़े नेता इमरान मसूद की भाभी खादिजा मसूद को उम्मीदवार बनाया, लेकिन दूसरे स्थान तक ही वह पहुंच पाई। मुरादाबाद मुस्लिम बाहुल्य सीट है। यहां से यूसुफ पर दांव लगाया, लेकिन वह चौथे स्थान पर रहे। मायावती ने सोचा था कि प्रयागराज में अतीक हत्याकांड पर मुस्लिमों की नाराजगी का फायदा उसे मिलेगा, लेकिन यहां सईद अहमद चौथे स्थान पर रहे उन्हें मात्र 7.44 फीसदी वोट मिले। लब्बोलुआब यह कि दलित मुस्लिम मतों को एक करने का दांव काम नहीं आया।

विधानसभा में भी खड़े किए थे 88 मुस्लिम
बसपा यूपी में मुस्लिमों का साथ पाने के लिए जद्दोजहद कर रही है। मायावती का प्रयास है कि दलितों के साथ मुस्लिम वोट बैंक अगर आ जाए तो उनकी सत्ता में वापसी की राह आसान हो जाएगी। इसीलिए वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 403 सीटों में 88 सीटों पर इसी वर्ग के लोगों को उतार कर सभी को चौंकाया था, लेकिन उस समय भी यह दांव नहीं चल पाया। बसपा यूपी में मात्र एक विधानसभा सीट रसड़ा बलिया ही जीत पाई। विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं का रुझान समाजवादी पार्टी की तरफ दिखा था।

विधानसभा चुनाव के बाद से ही मायावती मुस्लिमों को साधने और समझाने में जुटी हैं कि वही उनकी असली हितैषी  हैं। उन्होंने निकाय चुनाव से पहले अतीक अहमद की पत्नी शाइस्ता परवीन को बसपा में शामिल करते हुए प्रयागराज से मेयर का चुनाव लड़ाने का फैसला किया, लेकिन उमेश पाल हत्याकांड में नाम आने के बाद यह इरादा त्याग दिया। मगर शाइस्ता को पार्टी से बाहर न निकाल कर यह संदेश दिया कि बुरे वक्त में भी बसपा किसी का साथ नहीं छोड़ती है। इन्हीं सब को आधार बनाते हुए मेयर की 11 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर उनके मतदाताओं का रुख परखने की कोशिश की, लेकिन चुनावी परिणाम बताते हैं साथ नहीं मिल पाया।