नई दिल्ली
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने की कवायद तेज कर चुके हैं। चूंकि विपक्ष में प्रधानमंत्री उम्मीदवार को लेकर एकराय नहीं है, इसलिए अभी बिना चेहरे के आगे बढ़ने की रणनीति पर कार्य किया जा रहा है। लेकिन, अहम सवाल यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि, कद और नेतृत्व के सामने क्या विपक्ष की बिना चेहरे वाली रणनीति कामयाब हो पाएगी?
भाजपा ने पिछले चुनाव में भी इस बात को खूब प्रचारित किया था कि विपक्ष के पास मोदी का कोई विकल्प नहीं है। यह भी तय है कि अगले चुनाव में इसे प्रचारित किया जाएगा। सोशल मीडिया पर आज भी इस बात की चर्चा होती है कि आम चुनाव में विपक्ष के पास प्रधानमंत्री के लिए कौन ऐसा उम्मीदवार है, जो मोदी की बराबरी करता दिखे? इसका कोई जवाब विपक्ष के पास नहीं है। विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार अनेक हैं। दलों में क्षेत्रीय स्तर पर टकराव बहुत हैं। इनके चलते विपक्ष चुनाव, संसद के भीतर या सड़क पर सरकार के खिलाफ एकजुट नहीं दिखाई देता है। पर नीतीश की हालिया पहल नई है। पहले यह माना जा रहा था कि नीतीश खुद पीएम उम्मीदवार बनना चाहते हैं, लेकिन अब उन्होंने खुद ही स्पष्ट कर दिया है कि अभी सारा फोकस विपक्ष को एकजुट करके भाजपा को हराने पर रहेगा।
जानकारों की मानें तो इस मुहिम में आप, बीआरएस समेत तमाम दल शामिल हो सकते हैं, जो अभी मोटे तौर पर तीसरे मोर्चे के पक्षधर प्रतीत होते हैं। विपक्ष यह तो समझ रहा है कि यदि वह दो ध्रुवों में बंटा एक कांग्रेस प्लस और दूसरा तीसरा मोर्चा तो फिर सीधा फायदा भाजपा को होगा। इसलिए समूचे प्रमुख विपक्षी दलों के एक होने के आसार हैं। लेकिन, फिर सवाल चेहरे का खड़ा होगा कि विपक्ष के पास मोदी के मुकाबले कौन?
राजनीतिक विश्लेषक यह तो मानते हैं कि मोदी के चेहरे के सामने में विपक्ष की बिना चेहरे वाली एकजुटता जरूरी कमजोर नजर आएगी। लेकिन, इससे उसके असफल होने की गारंटी नहीं है। यदि विपक्ष को सत्ताविरोधी लहर को भुनाने में कामयाब होता है और सरकार की नााकामियों को जनता के बीच ले जाने में सफल रहता है तो फिर उसे फायदा होगा। महत्वपूर्ण यह भी है कि हर चुनाव चेहरे से जीतना संभव नहीं है। यह भी जरूर नहीं कि कोई चेहरा हर चुनाव या हर राज्य में प्रभावी साबित हो।
सीएसडीएस के विश्लेषक अभय कुमार दुबे के अनुसार, भाजपा के खिलाफ यदि सत्ता विरोधी लहर प्रकट होती है तो फिर विपक्ष को इस पर अपना फोकस करना होगा। जैसे हिमाचल में उसे फायदा मिला। कांग्रेस अपनी अंदरूनी कलह के बावजूद जीती। कर्नाटक में ऐसा ही संभवत: फिर होने जा रहा है। लेकिन, यदि सत्ता विरोधी लहर नजर नहीं आती है तो फिर मोदी के चेहरे का फायदा फिर भाजपा को मिलेगा।