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असद एनकाउंटर के सियासी मायने? सपा, कांग्रेस व बसपा की मांग को बीजेपी बनाएगी हथियार

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पटना  
प्रदेश के तीन सियासी दलों सपा, बसपा और कांग्रेस द्वारा अतीक अहमद के बेटे असद के एनकाउंटर पर सहानुभूति भरी बयानबाजी किए जाने के चलते सूबे की सियासत गर्मा गई है। आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है। भारतीय जनता पार्टी जहां उसे अपने नेता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के वक्तव्य ‘माफिया को मिट्टी में मिला देंगे’, को जीरो टालरेंस के तहत किया गया काम करार दे रही है। वहीं विपक्षी सपा, कांग्रेस व बसपा द्वारा मुस्लिम वोट बैंक की चाहत में प्रकट की गई सहानुभूति आसन्न निकाय और लोकसभा चुनावों में सियासी मुद्दा बनें तो हैरत नहीं।

एनकाउंटर के तुरंत बाद ही आरोप-प्रत्यारोप की सियासत शुरू हो गई है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने सबसे पहले एसटीएफ को बधाई दी। कहा कि उमेश पाल एडवोकेट और पुलिस जवानों के हत्यारों को यही हश्र होना था! इसके तुरंत बाद ही समाजवादी पार्टी ने ट्वीट कर पलटवार करते हुए कहा कि एनकाउंटर समाधान नहीं है। अखिलेश यादव ने एनकाउंटर की जांच की मांग कर डाली। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह ने भी सीधे अखिलेश यादव को निशाने पर लेते हुए कड़ी आलोचना की। 24 फरवरी को प्रयागराज में उमेश पाल की हत्या के बाद से ही सोशल मीडिया से लेकर सियासी जगत और आम लोगों में चर्चाएं आम थीं कि आखिर अतीक और उनके बेटे का हश्र क्या होगा?

कहना गलत न होगा कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कानून-व्यवस्था पर जीरो टालरेंस की नीति के चलते ही आम लोगों में यह भावना बलवती हो रही थी। इसी मुद्दे के बलबूते भाजपा ने यूपी में 37 साल बाद दोबारा सरकार बनाने का रिकार्ड बनाया। योगी इस मुद्दे पर सदन हो या फिर चुनावी सभाएं विपक्षी दलों की पूर्ववर्ती सरकारों में माफिया और अराजकता को मुद्दा बना हमलावर रहते हैं। अपनी इसी दृढ़ प्रतिज्ञा के चलते योगी देश भर में बुलडोजर बाबा के रूप में स्थापित भी हुए। इसी मुद्दे पर बीते विधानसभा सत्र में उनकी सपा मुखिया अखिलेश यादव से तीखी नोकझोंक भी हुई और इसी दौरान मुख्यमंत्री ने माफिया को मिट्टी में मिला देने का संकल्प लेने की बात कही। आने वाले चुनावों में भी उनके द्वारा इस मुद्दे पर वह विपक्ष को घेरना तय माना जा रहा है।

विकास दुबे कांड का 2022 में नहीं हुआ असर
बीते विधानसभा चुनाव से पहले हुए विकास दुबे एनकाउंटर पर भी तमाम सियासत हुई। ब्राह्मणों के एक वर्ग में खासी नाराज़गी होने के दावे किए जाते रहे। विधानसभा चुनाव के नतीजों ने इन सभी चर्चाओं और आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया। अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी को कानपुर और आसपास के जिले में भरपूर समर्थन मिला। पार्टी ने कानपुर नगर की 10 में से 10 सीटें जीतीं और पूरे कानपुर मंडल में 26 सीटों में से भाजपा ने 19 पर कब्जा किया।
 
अतीक के विरोध ने चमकाई थी कभी अखिलेश की छवि
हैरत तो यह है कि समाजवादी पार्टी ने जिस तरह एनकाउंटर को लेकर सरकार पर हमला बोला है सियासी जानकार इस पर हैरत में हैं। पूर्व आईजी व राजनीतिक विश्लेषक अरुण कुमार गुप्ता कहते हैंः-‘अखिलेश यादव वर्ष 2012 के चुनाव से पहले अतीक अहमद को मुलायम सिंह यादव द्वारा पार्टी में लेने और चुनाव लड़वाने की कवायद के पुरजोर विरोधी के रूप में उभरे थे। उन्होंने सार्वजनिक रूप से न केवल अतीक की निंदा की थी और उसे पार्टी में शामिल भी नहीं होने दिया था। यही नहीं मुख्तार को भी अपनी पार्टी कौमी एकता दल से ही चुनाव लड़ना पड़ा था। अखिलेश के इस रवैये ने उस वक्त आम लोगों खासकर युवाओं व प्रबुद्ध वर्ग में एक प्रगति पसंद स्वच्छ नेता की छवि कायम की थी।’ कहना गलत न होगा कि वर्ष 2012 के चुनाव में सपा को इसका लाभ भी मिला। अब देखना दिलचस्प होगा कि इस रवैये के उलट रणनीति अपनाए जाने का क्या असर होगा।