सुषमा जी की उम्र 63 के करीब है। वह पहले वर्किंग थीं। करीब 15 साल पहले शुगर लिमिट से ज्यादा रहने लगी। बाकी जिम्मेदारियों को निभाने में वह हमेशा सजग रहती थीं, लेकिन अपना ख्याल रखने में बहुत पीछे। इसी वजह से शुगर को काबू रखने पर भी ज्यादा ध्यान नहीं देती थीं। दवा खाना भी कई बार भूल जाती थीं। पिछले 2 वर्षों से वह डॉक्टर से नहीं मिली थीं। उनके पति का साथ पहले ही छूट चुका था और बच्चे विदेश में बस गए।
पिछले 2-3 बरसों से उनके लेफ्ट हेंड में कमजोरी महसूस हो रही थी। जलन भी होती थी। धीरे-धीरे जलन में बढ़ोतरी होती गई। परेशानी इतनी बढ़ गई थी कि सुषमा जी को डॉक्टर के पास जाना पड़ा। डॉक्टर ने 2 साल पुराना पर्चा देखकर कहा कि इतना लापरवाह नहीं होना चाहिए। सुषमा जी ने बताया कि उन्हें बाएं हाथ (लेफ्ट हैंड) में कमजोरी महसूस हो रही है और अक्सर जलन भी होती है। डॉक्टर ने ब्लड शुगर की रिपोर्ट में HbA1c (शुगर की 3 महीनों की औसत रिपोर्ट) सामान्य से काफी ज्यादा पाया।
बढ़ी शुगर और नसों की बीमारी
शुगर काबू करने के लिए दवा की डोज बढ़ाई गई, अलग से इंसुलिन भी शुरू किया। खानपान का भी ध्यान रखने को कहा। साथ ही, उन्होंने अपने अनुभव से यह सोचा कि ये लक्षण न्यूरोपैथी के हो सकते हैं। उन्होंने सुषमा जी को एक सीनियर न्यूरॉलजिस्ट से मिलने को कहा। सुषमा जी न्यूरॉलजिस्ट से मिलीं जिन्होंने NCS (Nerve Conduction Study) टेस्ट कराने के लिए कहा। रिजल्ट में न्यूरोपैथी यानी नसों से जुड़ी हुई परेशानी होने की जानकारी मिली। डॉक्टर ने कुछ और जांच भी कराईं। न्यूरोपैथी की स्थिति में सुधार के लिए दवा दी और कहा कि दवा लेना मिस न करें। फिर 1 महीने बाद आकर मिलें।
न्यूरॉलजी से कैसे अलग है न्यूरोपैथी?
न्यूरोपैथी एक बीमारी का नाम है। इसका संबंध न्यूरॉन से है। यह ठीक मायोपैथी के जैसा ही नाम है जिसका मतलब होता है मांसपेशी से जुड़ी बीमारी। न्यूरोपैथी में शरीर के मुख्य हिस्से से दूर यानी हाथों और पैरों के न्यूरॉन (पेरिफेरल न्यूरॉन) खास तौर पर आते हैं। इसलिए न्यूरोपैथी को कई बार पेरिफेरल न्यूरोपैथी भी कहते हैं।
वहीं न्यूरॉलजी (Neurology दो शब्द Neuron यानी नसें और logy मतलब स्टडी) में नर्व से संबंधित तमाम तरह की स्टडी, बीमारी, इलाज आते हैं। बात चाहे दिमाग की हो या फिर स्पाइन की, ऐसी सभी चीजें न्यूरॉलजी में आती हैं। दरअसल, न्यूरॉलजी में एक बीमारी के रूप में न्यूरोपैथी को पढ़ा जाता है। इसके लक्षणों और इलाज की बात की जाती है।
न्यूरोपैथी को ऐसे पहचानें
न्यूरोपैथी को नसों की बीमारी कह सकते हैं। इसमें नसों का सही तरीके से काम न करना, नसों का दब जाना या फिर कमजोर हो जाना जिनसे कई तरह के लक्षण उभरते हैं:
दर्द
जलन
कमजोरी
मांसपेशियों का कमजोर होना
गतिशीलता में कमी
सुन्नपन
कंपकपी
अचानक ठंड महसूस होना
चलने में कठिनाई होना
पकड़ कमजोर होना आदि।
कितने तरह की होती है यह?
कई तरह की हो सकती है न्यूरोपैथी, कुछ खास ये हैं:
1. हाथ-पैर की नसों से जुड़ी परेशानी
यह न्यूरोपैथी सबसे कॉमन है। इसमें शरीर के मुख्य हिस्से से दूर वाले हिस्से में न्यूरोपैथी की परेशानी होती है। अमूमन हाथ और पैर की नसों पर बुरा असर पड़ता है। इस तरह की न्यूरोपैथी को पेरिफेरल न्यूरोपैथी कहते हैं। अक्सर डायबीटीज के गंभीर मरीजों में यह न्यूरोपैथी देखी जाती है।
दरअसल, डायबीटिक न्यूरोपैथी में शुगर लेवल हाई रहने से हमारे शरीर में मौजूद खून की पतली नलियां खराब होने लगती हैं, इस वजह से ये नसों के लिए जरूरी पोषक तत्व नहीं पहुंचा पातीं। इससे नसें खराब होने लगती हैं।
2. जिन पर हमारा काबू नहीं
शरीर के कुछ काम खुद ही होते हैं, इन पर हमारा काबू नहीं होता। इन्हें इनवोलेंट्री ऐक्शन कहते हैं, मसलन: दिल का धड़कना, ब्लड प्रेशर, पाचन आदि। इस न्यूरोपैथी में शरीर की वे नसें प्रभावित होती हैं जो ब्लड प्रेशर, हार्ट रेट, डाइजेशन और यूरिनरी ब्लैडर को कंट्रोल करती है। परेशानी होने से इन पर कंट्रोल कम होने लगता है। इस तरह की न्यूरोपैथी को ऑटोनोमिक न्यूरोपथी कहते हैं।
3. एक या एक तरह की कई नसें हों प्रभावित
एक नस या एक तरह की कई नसें प्रभावित होती हैं। इससे शरीर के किसी भाग में अचानक कमजोरी या दर्द होने लगता है। इसे फोकल न्यूरोपैथी कहते हैं।
4. खानदानी परेशानी
मरीज को उनके पिता-माता या उनसे भी पहले की जेनरेशन से मिलती है। यह किसी जीन में बदलाव की वजह से उभर आती है। कई बार इस तरह की परेशानी जन्म से ही होती है। इसके मामले कम ही होते हैं। इस तरह की न्यूरोपैथी को हेरिडिटरी न्यूरोपैथी कहते हैं।
क्यों होती है न्यूरोपैथी
न्यूरोपैथी होने की वजह बीमारियां या शरीर में किसी जरूरी विटामिन की कमी हो सकती है। कई बार न्यूरोपैथी की वजह से कोई केमिकल भी बन सकता है।
जब किसी को डायबिटीज हो और शुगर का स्तर 6 महीने या 1 साल से ज्यादा वक्त तक औसतन 300 से ज्यादा रहे। वैसे कुछ लोगों को लक्षण आने में इससे ज्यादा कम वक्त भी लग सकता है।
मरीज को जब जोड़ों में ज्यादा दर्द हो, अकड़न महसूस हो यानी उस शख्स को रयूमेटाइड आर्थराइटिस की परेशानी हो। इस परेशानी को ऑटोइम्यून डिजीज कहते हैं।
लेड, आर्सेनिक जैसे केमिकल घुले पानी का लगातार सेवन करने से। शहरों में जो लोग वॉटर फिल्टर का इस्तेमाल करते हैं, उनमें ऐसी परेशानी अमूमन नहीं होती।
ट्यूमर की वजह से और कैंसर के इलाज में कीमोथेरपी दवा से। दरअसल, कीमोथेरपी के साइड इफेक्ट्स की वजह से कई बार नसों की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है।
विटामिन B-12 और कुछ लोगों में विटामिन-D की कमी की वजह से। विटामिन-B12 नसों के सही ढंग से काम करने में मददगार है, वहीं विटामिन-D से न्यूरोपैथी की दर्द में राहत पहुंचती है।
लिवर और किडनी की गंभीर बीमारियों के कारण। वहीं कुछ खास तरह के इन्फेक्शन मसलन: हर्पीज, एचआईवी आदि जैसे इन्फेक्शन की वजह से भी।
अगर थायरॉइड की परेशानी हो। वह शख्स हाइपोयरॉइडिज्म का मरीज हो। थायरॉइड हॉर्मोन का रोल पेरिफेरल नर्वस सिस्टम के काम करने में भी है। जब थायरॉइड ग्लैंड में थायरॉइड हॉर्मोन का उत्पादन कम होता हो।
चोट या गंभीर घाव की वजह से। अगर किसी की हड्डी टूट जाए और उस टूटी हुई हड्डी के साथ मांसपेशी में मौजूद नस दब रही हो। दुर्घटना के बाद इस तरह के मामले कई बार देखे जाते हैं। इसमें फिजियोथेरपी से फायदा होता है।
ज्यादा शराब पीने या दूसरे तरह का खतरनाक नशा करने से। जिन्हें नशे की बुरी लत हो, ऐसे शख्स के शरीर में अक्सर विटामिन B-12 और दूसरे तरह के कई अहम विटामिन्स, मिनरल्स की कमी हो जाती है।
टीबी और मिर्गी की दवाओं के साइड इफेक्ट्स की वजह से। ऐसी दवाओं को काफी लंबे अरसे तक लेना पड़ता है। शरीर पर इन दवाओं के साइड इफेक्ट्स भी उभरते हैं।
नसों में खराबी को ऐसे समझें
हमारे शरीर में 3 तरह की नसें मिलती हैं: 1. सेंसरी नर्व्स, 2. मोटर नर्व्स, 3. मिक्स्ड नर्व्स
1. सेंसरी नर्व्स
इस तरह की नसों का काम है हमारे संवेदी अंग (जहां हमें संवेदना महसूस होती हैं: स्किन, आंख, कान और जीभ पर टेस्ट बड्स) से सूचनाओं को सेंट्रल नर्वस सिस्टम (ब्रेन और स्पानल कॉर्ड) तक पहुंचाना। सीधे कहें तो हमें गर्म, ठंडा,स्पर्श, स्वाद आदि का पता सेंसरी नर्व्स के अंगों (आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा) से दिमाग तक सूचना पहुंचाने के बाद ही चलता है। ऊपर बताए हुए अलग-अलग कारणों की वजह से सेंसरी नसें खराब होने लगती हैं तो सेंसरी न्यूरोपैथी कहलाती है।
सेंसरी न्यूरोपथी के ये हैं लक्षण
जब किसी शख्स में सेंसरी नर्व प्रभावित होती है तो खासकर हाथों-पैरों में सुन्नता जैसे लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
संवेदना में कमी
दर्द की शिकायत
चींटियां काटने जैसा लगना
जलन
बिजली का झटका जैसा लगना
2. मोटर नर्व्स
इस तरह की नसों का काम है ब्रेन से सिग्नल को अलग-अलग अंगों और ग्रंथियों तक पहुंचाना। उदाहरण के लिए हम जो अपने हाथ, पैर आदि को अपनी इच्छा अनुसार उठाते हैं, चलाते हैं, मैं जो अपनी उंगलियों से की-बोर्ड के बटन दबाते हुए टाइप कर रहा हूं और आर्टिकल लिख रहा हूं। ऐसे सभी काम दिमाग से भेजे गए सिग्नल और उन सिग्नल के हिसाब से अंगों, उंगलियों आदि के मूवमेंट की वजह से यह सब हो रहा है। मोटर इसलिए कहते हैं क्योंकि ये नसें हाथ-पैरों की मूवमेंट से जुड़ी हैं। मोटर न्यूरोपैथी: इस नस में गड़बड़ी की वजह से कमजोरी, मांसपेशियों की कमजोरी और चलने-फिरने में परेशानी होती है।
क्या हैं मोटर न्यूरोपथी के लक्षण
ताकत में कमी महसूस होना। यह कमी सामान्य से ज्यादा होगी।
हाथ की ग्रिप कमजोर हो जाती है।
डायबीटीज के गंभीर मरीजों को और बुज़ुर्गों को पायजामा का नाड़ा बांधने में परेशानी होने लगती है।
चलते हुए अक्सर पैरों से चप्पल छूट जाती है। बार-बार होता है।
ऊंची-नीची सड़कों पर बार-बार गिर जाते हैं बैलेंस बनाने में जबकि दूसरे लोग आसानी से पाते लेते हैं। सीढ़ी चढ़ने में परेशानी
दूसरे लोगों की तुलना में उठकर बैठने में ज्यादा परेशानी होती है।
इरेक्टाइल डिस्फंक्शन की परेशानी, प्राइवेट पार्ट में कम सख्ती।
कई बार शरीर के किसी खास भाग में खून की मात्रा की सप्लाई में कमी होने की वजह से शरीर का इम्यून सिस्टम ही पेरिफेरल नसों पर हमला कर देता है। इससे कमजोरी और सिहरन की स्थिति बन सकती है। इसे Guillain-Barré syndrome कहते हैं।
3. मिक्स्ड नर्व्स
ऐसी नर्व्स जो सेंसरी और मोटर, दोनों तरह के काम करे यानी वे नर्व्स जो शरीर के अंगों से संवेदनाओं को ब्रेन या स्पाइनल कॉर्ड तक पहुंचाएं और सूचनाएं अंगों तक लेकर जाएं।
नर्व्स की संख्या के आधार पर भी न्यूरोपैथी के प्रकार
अगर शरीर की 1 नस प्रभावित हो: जब शरीर की एक नस प्रभावित हो या खराब हो तो उसे मोनो न्यूरोपैथी कहते हैं।
जब कई नसें हों प्रभावित: अगर किसी मरीज के शरीर में कई नसें खराब हो जाएं तो उसे पॉली न्यूरोपैथी कहते हैं।
इलाज न कराएं तो क्या होगा?
कई बार लोग कह देते हैं कि न्यूरोपैथी की दवा लेने या फिजियोथेरपी कराने के बाद न्यूरोपैथी की परेशानी ज्यादा बढ़ गई। दरअसल, ऐसा अमूमन होता नहीं। एक बार न्यूरोपैथी हो जाए तो यह धीरे-धीरे बढ़ती है। इलाज नहीं कराने से तो यह बढ़ती ही रहेगी। कभी-कभी दवाओं का असर होने में वक्त लगता है, इस दौरान लक्षण कुछ बढ़ सकते हैं। ऐसे में लोगों को लगता है कि इलाज के बाद भी न्यूरोपैथी के लक्षण बढ़ रहे हैं। पर दवा जारी रखने से फायदा ही होता है।
पहली कोशिश तो यह हो कि न्यूरोपैथी की परेशानी हो ही नहीं। चूंकि न्यूरोपैथी की परेशानी दूसरी बीमारियों या परेशानियों पर आधारित है, इसलिए कई बार गुज़रते वक्त के साथ कुछ लक्षण आ सकते हैं। ऐसे में शुरुआत में ही इसका इलाज शुरू हो जाए तो ज्यादा परेशानी से बच सकते हैं।
कौन-से टेस्ट कराएं?
कराने के लिए कहा जाता है। जांच का फैसला न्यूरो डॉक्टर ही लें तो बढ़िया है। इसी नाम की मशीन पर उस शख्स का टेस्ट किया जाता है। इसमें नसों में इलेक्ट्रिक इंपल्स की मूवमेंट को दर्ज किया जाता