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नीतीश कुमार के लिए उल्टा ना पड़ जाए जातीय सर्वे और 75% आरक्षण का दांव, समझें समीकरण

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पटना

 लोकसभा चुनाव की राजनीतिक विसात पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोहरे सजाने शुरू कर दिए हैं। केंद्र की बीजेपी नीत सरकार को अपदस्थ करने की रणनीति पर काम कर रहे नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुद्दों से घेरने की व्यूह रचना कर दी है। भले जातीय सर्वे, आर्थिक सर्वेक्षण या फिर विशेष राज्य का दर्जा जैसे मुद्दे सामाजिक विषमता के दूर करने के उद्देश्य को पूरा करता हुआ दिखता है, पर इन सभी मुद्दों का मूल मकसद राजनीति से प्रेरित भी है। यहां मूल मकसद नमो की सरकार को लाचार या फिर सामाजिक न्याय का विरोधी बताया जाना है। आइए समझते हैं कि नीतीश कुमार ने नमो को कठघरे में खड़ा करने हेतु कैसी व्यूह रचना की है।

जातीय सर्वे,आर्थिक सर्वेक्षण और विशेष राज्य का दर्जा

देश को भाजपा मुक्त कराने की दिशा में नीतीश कुमार ने सबसे पहले जातीय सर्वे की आधारशिला रखी। मामला कोर्ट में भी गया जहां जातीय सर्वे का विरोध के पीछे कहा गया कि जनगणना कराने का अधिकार केंद्र को है फिर राज्य सरकार यह कैसे करा रही है। तब राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि जनगणना नहीं, बल्कि जातीय सर्वे कराया जा रहा है। और इस सर्वे का मूल मकसद आबादी के अनुसार योजनाओं में हिस्सेदारी को ध्यान में रख कर किया जाना है। इसके बाद पटना उच्च न्यायालय ने सर्वे की इजाजत दे दी।

इसी तरह से महागठबंधन नीत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण बिहार की गरीबी और अविकसित राज्य बताना है। इसके लिए कुछ आंकड़ों का सहारा लिया गया है। मसलन, बिहार में छह हजार तक 63 प्रतिशत जनसंख्या की आमदनी 10 हजार या इससे नीचे है। मात्र 03.9 प्रतिशत ही लोग 50 हजार आमदनी कर पाते हैं। शिक्षा की दयनीय स्थिति को भी इस सर्वेक्षण में जताते कहा गया कि मात्र 7 प्रतिशत ही स्नातक या इससे ज्यादा ऊपर की डिग्री हासिल किए हुए हैं।

शेष 93 प्रतिशत में प्रथम वर्ग से लेकर 12 तक शिक्षा प्राप्त करने वालों के साथ अशिक्षितों की एक बड़ी फौज भी बिहार में है। पक्का मकान की बात करें तो 36.76 प्रतिशत लोगों के पास ही पक्का मकान है। 48 प्रतिशत या तो खपरैल या टीन अच्छादित मकान या झोपड़ी में रहते हैं। इन आंकड़ों के हवाले से बिहार सरकार ने विशेष राज्य का दर्जा की मांग कर दी।

 

क्या है राजनीति

 

  • बिहार सरकार जानती है कि जातीय सर्वे के आधार पर बढ़ाए गए आरक्षण के प्रतिशत को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। ऐसा इसलिए की जातीय सर्वे में कई त्रुटियां रह गई हैं। जानिए क्या क्या
  • बिहार जातिगत जनगणना में ग़रीबी की गणना का आधार सिर्फ़ मासिक आय को रखा गया है जबकि ग़रीबी को सिर्फ़ मासिक आय तक सीमित नहीं किया जा सकता है।
  • बिहार जातिगत जनगणना 2022-23 की रिपोर्ट में परिवारों की भूमि स्वामित्व से संबंधित गणना को प्रकाशित नहीं की गई है। पशु स्वामित्व के सवाल को तो पूरी तरह से गौण कर दिया गया।
  • बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट में यह तो बताया गया है कि किस जाति में कितना प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी करते हैं या अलग अलग तरह का रोज़गार करते हैं, लेकिन ये नहीं बताया गया है कि बिहार के विभिन्न संसाधनों पर किस जाति का कितना हिस्सेदारी है।
  • भारत सरकार या केंद्र सरकार की किसी भी सर्वे या जनगणना रिपोर्ट में गणना किस विधि के अनुसार किया गया, सर्वे के दौरान क्या क्या सवाल पूछे गए थे, इन सभी का विवरण रिपोर्ट में ही लिखा जाता है, लेकिन बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट में इनमे से कोई भी जानकारी को रिपोर्ट का हिस्सा नहीं बनाया गया है।
  • जातीय गणना में राजनीति प्रतिनिधित्व की गणना नहीं की गई है। इसके तहत यह बताना चाहिए था किस परिवार में किसी ने किसी भी स्तर का चुनाव लड़ा या नहीं।
  • इस रिपोर्ट में पलायन करने वालों का जिक्र तो है पर, देश के अलग-अलग राज्यों से आकर बिहार में पलायन करके स्थाई या अस्थाई रूप से बिहार में रह रहे हैं, उनके बारे में इस रिपोर्ट में कोई जानकारी नहीं है।
  • जातीय सर्वे को 1931 के आंकड़ों से कोई तुलना नहीं की गई है।
  • प्रायः जनगणना की रिपोर्ट में महिला और पुरुष के आंकड़ों को एक साथ भी दिखाया जाता है और अलग-अलग भी दिखाया जाता है, लेकिन बिहार जातिगत जनगणना में महिलाओं के आंकड़ों को अलग से नहीं दर्शाया है। वेश्याओं की गणना भी नहीं की गई है, जबकि साल 1931 में हुए जातिगत जनगणना में वेश्याओं की अलग से गणना की गई थी।

 

अब क्या चाहते हैं नीतीश?

दरअसल, नीतीश कुमार जानते हैं की जातीय और आर्थिक सर्वेक्षण की त्रुटियों के कारण आरक्षण के बढ़े प्रतिशत पर न्यायालय का ग्रहण लग सकता है। साथ ही विशेष राज्य के दर्जा पाने का कोई आधार नहीं रहने के कारण नीतीश कुमार का विशेष राजनीतिक अभियान भी ध्वस्त होते दिख रहा है। ऐसे में नीतीश कुमार ने राजनीति का एक नया खेल खेल डाला। इसका खुलासा तब हुआ जब कैबिनेट सेक्रेटरी एस सिद्धार्थ ने मंत्रिपरिषद की बैठक के बाद यह बताया कि बढ़े आरक्षण को 9वीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेज दिया है।

अब नीतीश कुमार केंद्र की सरकार पर यह ठीकरा फोड़ते जनता के बीच जाएंगे कि नमो की सरकार आरक्षण विरोधी है और राज्य का विकास भी देखना नहीं चाहती इसलिए विशेष राज्य का दर्जा भी नहीं दे रही है। जबकि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद भी जानते हैं कि बिहार उन मापदंडों को पूरा नहीं कर पा रही है जो विशेष राज्य का दर्जा दिला सके। यूपीए की सरकार में मंत्री रहे पी चिदंबरम और एनडीए की सरकार में वित्त मंत्री रहे अरुण जेटली ने भी साफ कहा कि बिहार विशेष राज्य के दर्जा का उचित पात्र नहीं।

बहरहाल, नीतीश सरकार आरक्षण और विशेष राज्य के दर्जा के आड़े केंद्र सरकार को घेरना चाहती है और राज्य की जनता के बीच संदेश भी देना चाहती है कि भाजपा विकास विरोधी है। अब नीतीश कुमार के प्रयास को कितनी सफलता मिलती है यह तो आगामी लोकसभा चुनाव के परिणाम बताएंगे वह भी इस विश्वास के साथ कि साल 2015 की विधान सभा चुनाव में आरक्षण मामले को जिस तरह से राजनैतिक रूप में इस्तेमाल किया, इस बार भी नजरिया कुछ ऐसा ही है।