हमारी पौराणिकता में शनिदेव को दंडाधिकारी माना जाता है। मान्यता यह है कि शनि न्याय करते हैं और वे न्याय करते हुए किसी से ना तो प्रभावित होते हैं और ना ही भयभीत, चाहे कोई भी हो। शनिदेव निष्पक्ष दंडाधिकारी हैं। चाहे देव हो या असुर मनुष्य हो या पशु सबको उनके कर्मों के आधार पर वे दंड देते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार स्वयं भगवान शिव सूर्यपुत्र शनिदेव के गुरु कहे जाते हैं। उनके आशीष से ही यम के भाई शनि को दंडाधिकारी चुना गया है। इसके बावजूद शनिदेव और शिव के संबंध में एक रोचक कथा मिलती है, जिसमें शनिदेव ने शिव को भी श्राप दिया है। कथा के अनुसार कैलाश पर्वत पर एक दिन शिव विराजमान थे, तभी शनिदेव उनके दर्शन करने आ गए। अपने गुरु को प्रणाम करते शनिदेव ने बताया कि, महादेव मुझे क्षमा करें कल मैं आपकी राशि में प्रवेश करने वाला हूं और मेरी वक्र दृष्टि से आप बच नहीं पाएंगे। शिवजी को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा कि उनका शिष्य अपने कर्म को करने में उनसे भी किसी मर्यादा का पालन नहीं कर रहा है। शिवजी शनिदेव से बोले कि- कितने समय तक उनको शनिदेव की वक्र दृष्टि का सामना करना पड़ेगा। तब शनिदेव बोले कि उनकी दृष्टि कल सवा पहर तक रहेगी। अगले दिन चिंतित महादेव सुबह ही धरती लोक पर चले गए और शनि से बचने के लिए हाथी का वेश बनाकर इधर-उधर छिपते रहे। जब दिन ढल गया तो पुन: शिव वेश में कैलाश आ गए। शिवजी मन ही मन खुश हो रहे थे कि उन्होंने आज शनिदेव को अच्छे से चकमा दिया। शाम को शनिदेव उनसे पुन: मिलने कैलाश आए। शिवजी ने शनिदेव से कहा कि आज आपकी वक्र दृष्टि से मैं बच गया। यह सुनकर शनि मुस्कुराए और बोले कि यह मेरी ही दृष्टि का प्रभाव था कि आज पूरे दिन आप हाथी बनकर धरती पर फिर रहे थे। आपकी पशु योनि मेरे ही राशि भ्रमण का परिणाम था। यह सुनकर महादेव को शनि और भी प्यारे लगने लगे और कैलाश पर शनिदेव के जयकारे लगने लगे।