गोंडा
कैंची हर घर में जरूर होती है। नए दौर में जब, कैंची भी बदलाव के दौर से गुजर रही है तब भी एक शहर है जहां के नाम भर से लोग कैंची खरीद लेते हैं। जी हां यह शहर है मेरठ जहां की कैंची की धार से हर कोई वाकिफ है। ये शहर अपनी कैंचियों के लिए दूर-दूर तक जाना जाता है। सात समुंदर पार तक इसके लोग मुरीद हैं।
कैंचियान मुहल्ले की विरासत
करीब 400 साल से अधिक पुराने इस कैंची कारोबार की बात करें तो मेरठ शहर के कैंचियान मुहल्ले में कैंची तैयार करने की खट-पट से सन्नाटा टूटता है। मानों कैंची उद्योग की धारदार विरासत पर कोई मुहर लगाता हो। बुजुर्ग कारीगरों और व्यापारियों की आंखों से कैंची इंडस्ट्री की विरासत टपकती नजर आती है। कारीगरों के हुनरमंद हाथ दरअसल, कैंची की धार का मिलान करते हैं तो यह आंखें इतनी सटीक हैं कि चीन और जापान की कंप्यूटराइज मशीनें भी पानी भरने लग जाएं। सच तो यही है कि खुरदरे हाथों पर दर्ज है मेरठ के कैंची उद्योग की दास्तान। कोई खासियत तो है, मेरठ की कैंची में। चीन जैसे देश चिढ़ उठते हैं, यहां की धार के आगे।
बेगम समरू के हथियार देख कर बनी कैंची
करीब 400 साल के सफर में कैंची इंडस्ट्री में आज तक जंग नहीं लगी। भले ही इतिहास और भूगोल में दर्जनों बल पड़ गए हों, लेकिन मेरठ की कैंची एक मिलीमीटर भी टस से मस नहीं हुई। दरअसल, मुगल शासकों के लिए तलवार बनाने वाले हाथों ने कैंची बनाने में अपना हुनर विकसित किया था। कहते हैं कि सबसे पहले बेगम समरू विदेश से एक हथियार लेकर आईं जो हूबहू कैंची की तरह था। कारीगरों ने इस हथियार को जब पिघलते लोहे पर आजमाया तो गजब का यंत्र बन पड़ा। आखून ने सबसे पहले मेरठ की कैंची को हैंडिल के साथ पेश किया।
यूपी गजेटियर में भी जिक्र
1956 के यूपी गजेटियर में जिक्र है कि 90 वर्ष पहले आखून और उनके वंशज, रोजाना आधा दर्जन नई कैंची तैयार करते थे। अल्ला बक्श और मौला बक्श समेत दर्जनों कारीगरों के हाथों से गुजरते हुए कैंची और धारदार बनती गई। यहां से कबाड़ पिघलाकर हाथ की कारीगरी से कैंची बनाने का जो सिलसिला चला, आज श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान, चीन, यूरोप एवं अफ्रीका जैसे तमाम देश यहां की कैंची के मुरीद हैं। देशभर में कपड़ों की कटाई, टेक्सटाइल इंडस्ट्री, कागज काटने वाली कैंची एवं अत्याधुनिक सैलूनों का मेरठ की कैंची के बिना काम नहीं चलता।
ऐसी बनती है मेरठ की धारदार कैंचियां
मेरठ की कैंची इंडस्ट्री हाथों की कारीगरी का हैरतअंगेत नमूना है। आखून के वंशजों ने इस दस्तकारी में हाथ आजमाया। मशीन से बनाई गई चीन की कैंची को मेरठ में हाथ से बनाई गई कैंची तमाम स्तरों पर शिकस्त देती है। कैंची के कर्व का अंदाजा इतना सटीक होता है कि मिलान करने में मशीन भी गच्चा खा जाए। स्पि्रंग स्टील और पुरानी गाड़ियों की कमानी पिघलाकर ब्लेड, जबकि पुराने पीतल, बर्तन, एल्यूमीनियम से कैंची का हैंडल बनाया जाता है। रेलवे की पुरानी स्पि्रंग को री-साइकिल कर कैंची बनाई जाती है। मेरठ में कपड़ा, नाई, कारपेट समेत दो दर्जन से ज्यादा किस्में कैंची की ही हैं।
दादा ले, पोता बरते
चीन की कैंचियां भले ही बाजार में कब्जा जमा रही हैं किंतु धार की कीमत पर वह दगा दे जाती हैं। मेरठ की कैंचियों को तीन से चार पीढि़यां प्रयोग में ला रही हैं। जबकि चीन की कैंचियां चंद महीनों में दम तोड़ देती हैं। कैंची कलस्टर के उपाध्यक्ष मोहम्मद शरीफ बताते हैं कि उनके पास 70 वर्ष से भी पुरानी कैंचियां बनने के लिए आई हुई हैं। मेरठ की इस कैंची को लेकर कहावत भी है कि दादा ले और पोता बरते।
स्ट्री पर एक नजर कैंची इंड
मेरठ की कैंची इंडस्ट्री करीब 400 वर्ष पुरानी है। रोजाना करीब दस हजार कैंचियां बनती हैं। करीब 125 इकाइयां कारोबार में शामिल है, 30 बड़ी इकाईयां है। प्रत्यक्ष रूप से तीन हजार, जबकि अप्रत्यक्ष 25 हजार कारीगरों को रोजगार मिलता है। सालाना टर्नओवर करीब 10 करोड़ है। प्रत्यक्ष रूप से विदेश निर्यात नहीं, किंतु एजेंटों के माध्यम से श्रीलंका, नेपाल, चीन, भूटान, पाकिस्तान, सऊदी अरब एवं अफ्रीकी देशों में बहुतायत में भेजी जाती है। मेरठ की कैंची की खासियत है कैंची की धार, संतुलन एवं टिकाऊपन। मेरठ की कैंची के चर्चित ब्रांड-असली आखून, मोरनी, इंशा, मिशन, रईस, वीनस, क्राउन समेत कई अन्य ब्रांड शामिल हैं। शहजाद सैफी गुप्लू बताते हैं कि मेरठ से आज भी 50 से ज्यादा देशों में कैंची एक्पोर्ट की जाती है। मेरठ में कैंची बनाने के उद्योग से 50 से 60 हजार लोग जुड़े हुए हैं। 350 से 400 साल पुराने इस कारोबार को फिलहाल अब किसी सहारे की जरूरत है