ग्वालियर
ग्वालियर-चंबल अंचल लगातार सूबे की सत्ता की सियासत का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस दोनों ही यहां से सत्ता की चाबी की तलाश में पूरे दमखम के साथ मैदान में पसीना बहा रही हैं। इसी क्रम में सात साल बाद आज यहां भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश कार्यसमिति की बैठक आयोजित की जा रही है। इसके जरिए पार्टी विधानसभा चुनावों से पहले संगठनात्मक ढांचे में नया जोश भरने जा रही है।
खास बात ये है कि वर्ष 2003 से एमपी की सत्ता पर काबिज भाजपा को कालांतर में लंबे समय तक यहां बहुजन समाज पार्टी की सक्रिय स्थिति का भी लाभ मिला। दरअसल बीएसपी के खाते में बड़ी मात्रा में वोटों का बंटवारा होते रहने से मध्यप्रदेश में कांग्रेस का सियासी वजूद लगातार कमजोर होता चला गया, जिससे कहीं न कहीं भाजपा को और मजबूत मिली। वहीं धीरे-धीरे बसपा नेतृत्व कमजोर होने के साथ-साथ अनुसूचित जाति का जो वोट बैंक कभी कांग्रेस का परंपराग वोटर हुआ करता था, उसने कुछ तादात में फिर से कांग्रेस की ओर वापसी का रुख करना शुरु कर दिया। इस कारण बदलते सियासी समीकरणों से कांग्रेस को आॅक्सीजन मिलने लगी। इसी कालखंड में एट्रोसिटी एक्ट को लेकर हुए आंदोलन ने भी खास तौर से ग्वालियर और चंबल अंचल में कांग्रेस को काफी फायदा पहुंचाया और 15 साल बाद वह फिर से प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब हो गई।
गौरतलब है कि इन्हीं सब परिस्थितियों के चलते वर्ष 2018 के चुनाव में ग्वालियर और चंबल संभाग में बीजेपी को बहुत बढ़ा झटका लगा था और उसका सरकार बनाने का सपना टूट गया। अंचल की कुल 34 सीटों में में कांग्रेस को तक बंपर 26 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि भाजपा केवल सात पर सिमटकर रह गई। वहीं इसके 18 महीने बाद केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के 22 समर्थकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देते हुए कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। इससे कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई और उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।
कांग्रेस का तख्तापलट
इसके बाद शिवराज सिंह चौहान ने चौथी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री के रुप में सत्ता में वापसी की। बदले हालातों में प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा 19 सीटें जीतकर अपनी सरकार को दम देने में कामयाब रही, जबकि कांग्रेस केवल नौ सीटें जीत पाई। इनमें ग्वालियर-चंबल की जिन 16 सीटों पर चुनाव हुए उनमें से भाजपा की झोली में 9 और कांग्रेस के खाते में 7 सीटें आर्इं। वहीं इससे पहले 2013 में दोनों संभाग के आठ जिलों की 34 विधानसभा सीटों में से भाजपा के 20 विधायक चुनकर आए थे और 2018 में महज सात विधायक रह गए। जबकि कांग्रेस के 12 से बढ़ाकर 26 विधायक हो गए।