आदिशक्ति दुर्गा का कूष्माण्डा के रूप में चौथा स्वरूप भक्तों को संतान सुख देता है। कहा जाता है कि जब चारों ओर अंधेरा फैला हुआ था और सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तो देवी कूष्माण्डा ने मंद-मंद मुस्कुराते हुए ब्रह्मांड की उत्पति की। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। शास्त्रों में इनका अष्टभुजा देवी के नाम से व्याख्यान आता है। इनके हाथों में कमल, कमंडल, अमृतपूर्ण कलश, धनुष, बाण, चक्र, गदा और कमलगट्टे की जापमाला है। ब्रह्मांड की रचना करने के बाद देवी ने त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश और त्रिदेवियों काली, लक्ष्मी और सरस्वती को उत्पन्न किया। देवी का यह रूप इस पूरे ब्रह्माण्ड की रचना करने वाला है। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इनके देह की कांति और प्रभा भी सूरज के समान ही तेजोमय है। इनकी आराधना से भक्तों को तेज, ज्ञान, प्रेम, उर्जा, वर्चस्व, आयु, यश, बल, आरोग्य और संतान का सुख प्राप्त होता है। मां कूष्माण्डा के स्वरूप को प्रज्वलित प्रभाकर कहा गया है। जिन व्यक्तियों कि कुण्डली में सूर्य पीड़ित हो, नीच का हो या राहू से ग्रसित हो रहा है उन्हें मां कूष्माण्डा की साधना करनी चाहिए। इससे पिता-अधिकारियों से लाभ मिलता है, संतान सुख और यश-मान मिलता है व भाग्य प्रबल होता है। मां कूष्माण्डा सभी सिद्धियों और निधियों को प्रदान करने वाली देवी हैं।