लंदन
इंसानों का दिमाग लगातार सिकुड़ रहा है. आकार घट रहा है. वजह है जलवायु परिवर्तन. यानी क्लाइमेट चेंज. जैसे-जैसे क्लाइमेट चेंज की दर बढ़ेगी. इंसानों का दिमाग छोटा होता चला जाएगा. एक नई स्टडी में यह डराने वाला फैक्ट सामने आया है. आइए जानते हैं कि यह स्टडी क्या कहती है?
इंसानों के पास जलवायु परिवर्तन और उसके साथ बदलते इंसानी शरीर का 50 हजार साल पुराने रिकॉर्ड्स हैं. कैलिफोर्निया स्थित नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के साइंटिस्ट जेफ मॉर्गन स्टिबल ने यह स्टडी की कि कैसे इंसान बदलते जलवायु के तनाव को बर्दाश्त करता है. उसका दिमाग इसे कैसे हैंडल करता है?
अपनी स्टडी पेपर में उन्होंने लिखा है कि जिस तरह से अभी पूरी दुनिया में मौसम बदल रहा है. तापमान बढ़ रहा है. ऐसे में इंसानी दिमाग पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन को समझना आसान नहीं है. लेकिन इसकी वजह से इंसानी दिमाग सिकुड़ रहा है और छोटा होता जा रहा है. इससे उसके व्यवहार पर भी असर पड़ रहा है.
स्टडी में जेफ मॉर्गन ने 298 इंसानों के दिमाग के आकार की स्टडी की. ये स्पेसिमेन हैं. यानी पुराने इंसानों के जीवाश्म दिमाग. जो 50 हजार साल पुराने समय से लेकर नए तक हैं. स्टडी में वैश्विक तापमान, आद्रता यानी ह्यूमिडिटी और बारिश के आंकड़ों को भी देखा गया. लेकिन हैरान करने वाला डर सामने आया.
जब भी जलवायु गर्म होता है. दिमाग का औसत आकार घटने लगता है. जबकि, सर्दियों में यह फैलता है. जेफ मॉर्गन कहते हैं कि मेरी पुरानी स्टडी में भी यह बात सामने आई थी. लेकिन मैं उसकी जड़ों तक जाना चाहता था. इंसानों का दिमाग समय-समय पर बदलता चला गया. लेकिन इसकी स्टडी बहुत कम हुई है.
जेफ ने बताया कि कई प्रजातियों के जीवों के दिमाग पिछले कुछ लाख सालों में बढ़ा है. विकसित हुआ है. इंसानों के साथ उलटा हो रहा है. जेफ ने 50 हजार साल पुराने 298 इंसानी खोपड़ियों के 373 माप की जांच की. साथ ही खोपड़ी मिलने के भौगोलिक स्थान के मौसम की भी जांच की गई. ताकि जलवायु का पता चल सके.
जीवाश्म को उनकी उम्र के हिसाब से बांट दिया गया था. जेफ ने जीवाश्म को 100 साल, 5000 साल, 10 हजार साल और 15 हजार साल या उससे ज्यादा की कैटेगरी में बांट दिया. ताकि चार अलग-अलग समय में अलग-अलग मौसम के हिसाब से दिमाग के आकार की गणना की जा सके. डेटा यूरोपियन प्रोजेक्ट फॉर आइस कोरिंग इन अंटार्कटिका डोम सी से लिया गया.
यह प्रोजेक्ट 8 लाख साल पहले तक के सरफेस टेंपरेचर का रिकॉर्ड रखता है. आखिरी 50 हजार साल ग्लेशियल मैक्सिमम थे. जिसकी वजह से औसत तापमान ठंडा रहा है. लेकिन यह सिर्फ आखिरी प्लीस्टोसीन तक. इसके बाद होलोसीन यानी आधुनिक इंसानों की दुनिया में तापमान बढ़ना शुरू हुआ तो रुका ही नहीं. आज भी नहीं.
होलोसीन की शुरुआत यानी करीब 12 हजार साल पहले से लेकर अब तक इंसानों के दिमाग के आकार में 10.7 फीसदी की कमी आई है. जेफ कहते हैं कि आखिरी ग्लेशियल मैक्सिमम 17 हजार साल पहले था. इसके बाद से लगातार तापमान बदल रहा है. मौसम बदल रहा है. जिसकी वजह से इंसानी दिमाग छोटा हो रहा है.
इंसानों का दिमाग 5 से 17 हजार साल के बीच ज्यादा सिकुड़ा है. इसकी वजह ग्लोबल वॉर्मिंग है. लगातार यह बढ़ता जा रहा है. जिसका असर लंबे समय में इंसानी दिमाग पर बुरा ही पड़ेगा. आकार छोटा होगा. दिमाग छोटा होने से शरीर पर असर पड़ेगा. व्यवहार पर असर पड़ेगा. किस तरह का बदलाव आएगा, यह तो स्टडी का विषय है.
जेफ कहते हैं कि मेरी स्टडी में यह पुख्ता हो चुका है कि तापमान बढ़ने, मौसम बदलने और जलवायु परिवर्तन की वजह से इंसानों के दिमाग में सिकुड़न आ रही है. आकार छोटा हो रहा है. भविष्य और खतरनाक स्थितियां पैदा करने वाला है. यह स्टडी ब्रेन, बिहेवियर और इवोल्यूशन जर्नल में प्रकाशित हुई है.