कवर्धा
जब हम रासायनिक दवाईयों का उपयोग कम करते थे तब कीटों का प्रकोप बहुत कम देखने को मिलता था जैसे जैसे रासायनिक दवाइयों का उपयोग बढ़ता जा रहा है कीटो का प्रकोप भी बढता जा रहा है हमारे खेतो में विभन्न प्रकार के खादों के उपयोग से पौधों में वृद्धि तो हो रही है लेकिन धीरे धीरे पौधों की कीटों से लडने की क्षमता कम होती जाती है। यह बात वरिष्ट वैज्ञानिक डॉ गजेद्र चंद्राकर इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर ने कवीर किसानों का एक दिवसीय प्रशिक्षण के दौरान कही जो चिंतनीय है।
उन्होंने बताया कि पहले बहुत से ऐसे कीटनाशक है जिनको सरकार द्वारा उपयोग हेतु प्रतिबन्धित है किया गया है जैसे कारबेरल, एल डी कार्म, एला क्लोर, कैल्सियम सायनाइड, कलोरडेन जानकारी की कमी होने के कारण किसान इनका उपयोग करते रहते है। पहली बारिश होते ही जब पानी मिट्टी में पड़ती है तो उसमे उपस्थित सुक्ष्म जीव सक्रीय हो जाते है ओर मिटटी से सौंधी सौंधी खुशबू आती है लगातार कीटनाशको के उपयोग से मिटटी में सूक्ष्म जीवो एवं तत्वों की कमी होती जा रही है। उन्होंने ने प्रकृति में पाए जाने वाले नेचुरल इंडिकेटर के बारे में भी जानकारी दी जैसे की बाजार में मिलने वाले चमकदार फलो में मक्खी कम बैठती है जब की प्राकृतिक फलो में मक्खी अधिक बैठती है घरो में दिए हुए चावल को यदि चिडिया नहीं खाती है इसका मतलब यह है की उसमे अधिक मात्रा में कीटनाशक का उपयोग हुआ है।
उन्होंने बताया कि खेतो में गोबर खाद का उपयोग अत्यंत आवश्यक है नहीं तो मिट्टी धीरे धीरे रेत में परिवर्तित हो जाएगी खेतो में गोबर खाद एवं राखड(पोटास) की कमी के कारण मिटटी में सिलिका की कमी हो जाती है जिससे कटाई के बाद नुकसान में बढोतरी होती है। पहले किसान खेतो में हरी खाद जैसे सनई, ढेचा का उपयोग करते थे जिससे मिटटी की उपजाऊ शक्ति बनी रहती थी यदि मिटटी में काई की समस्या अधिक है एवं मिटटी में कड़ापन है इसका मतलब यह है की वो मिटटी अधिक अम्लीय है इसे कम करने के लिए हम चुने का उपयोग करते है यदि जमींन अच्छा होगा तो अच्छा आनाज पैदा होगा एवं मनुष्य का स्वास्थ्य भी अच्छा होगा। प्राकृतिक खेती आज और आने वाले भविष्य की जरुरत है।