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डीके शिवकुमार को नहीं मिली लॉयल्टी की रॉयल्टी, इसलिए भारी पड़ गए सिद्धारमैया

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नई दिल्ली बेंगलुरु

कर्नाटक चुनाव के परिणाम आने के साथ ही सियासी गलियारे में जिस बात की चर्चा थी, वो बात सच साबित हो गई। मुख्यमंत्री के दो प्रबल दावेदारों को लेकर लंबी खींचतान और कई दौर के विचार-विमर्श के बाद सिद्धारमैया के नाम पर मुहर लग गई। सिद्धारमैया का रास्ता काटने के लिए डीके शिवकुमार ने सारे घोड़े खोल दिए थे। पार्टी आलाकमान को अपना संघर्ष, जेल जाना याद दिलाने के साथ ही यहां तक कहा कि मैं वफादार कांग्रेसी हूं और अब मुझे लॉयल्टी की रॉयल्टी मिलनी चाहिए। खुद को वफादार कांग्रेसी बताकर शिवकुमार परोक्ष रूप से यह बताना चाहते थे कि सिद्धारमैया जेडी(एस) से पार्टी आए हैं। उन्होंने यह तक पेशकश कर डाली कि सिद्धारमैया के अलावा मुझे कोई भी सीएम के रूप में स्वीकार है। इस पर भी बात नहीं बनी तो शिवकुमार ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से ही आग्रह कर डाला कि आप राज्य के सीएम बन जाएं।

इन सियासी दांवपेचों को छोड़ भी दे तो यह एक तथ्य है कि कर्नाटक में 2019 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ही प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष डीके शिवकुमार वहां सरकार के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष करते दिख रहे थे, इसके बावजूद सत्ता की मलाई सिद्धारमैया के हाथ लग गई तो इसके पीछे जरूर कांग्रेस की कोई रणनीति रही होगी। दरअसल, कांग्रेस ने यह फैसला काफी सोच-समझकर लिया है। आइए, समझते हैं कि इसके पीछे कांग्रेस की क्या रणनीति है।

काम आया सिद्धारमैया का अनुभव और स्वीकार्यता
सिद्धारमैया 2013 से 2018 तक यानी पांच सालों के लिए कर्नाटक के सीएम रह चुके हैं। कर्नाटक में एक साथ पांच साल या उससे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले वह तीसरे शख्स हैं। यानी उनके पास सरकार चलाने का अनुभव है, जिसे बीजेपी जैसे मजबूत विपक्ष से पार पाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने वरीयता दी। सिद्धारमैया को शिवकुमार के मुकाबले अधिक विधायकों का भी समर्थन हासिल है। जब सिद्धारमैया बार-बार यह दावा कर रहे थे तो शिवकुमार इसका जवाब पार्टी मेरी मां है और पार्टी के पास 135 विधायक हैं, जैसी भावनात्मक बातों से दे रहे थे।

सिद्धारमैया का अहिंदा कार्ड भी रहा उनके फेवर में
इसके अलावा यह भी माना जाता है कि सिद्धारमैया की पैठ पूरे कर्नाटक और समाज के सभी तबकों में है। खासकर दलित, मुसलमान और पिछड़े वर्ग को मिलाकर कर्नाटक में अहिंदा फॉर्मूले पर वह लंबे समय से काम कर रहे हैं और कांग्रेस को डर था कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता तो एक बड़ा वोट बैंक खत्म हो सकता था। राज्य में दलित, आदिवासी और मुस्लिमों की आबादी 39 फीसदी है। इसके साथ ही सिद्धारमैया खुद भी ओबीसी हैं और उनकी कुरबा जाति की आबादी7 प्रतिशत के आसपास है। कांग्रेस ने कर्नाटक में इसी समीकरण के सहारे राज्य की राजनीति में वापसी की है और वह इसे कमजोर नहीं करना चाहती है।

डीके शिवकुमार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले
डीके शिवकुमार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं और वह केंद्रीय एजेंसियों सीबीआई और ईडी के रडार पर कुछ सालों से हैं। इन मामलों में वह जेल तक जा चुके हैं। ऐसे में उन्हें कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद उनके जेल जाने की आशंका बनी रहती और सरकार के अस्थिर होने का खतरा हमेशा बना रहता। पार्टी आलाकमान यह नहीं चाहती था कि 2019 में जिस तरह से भाजपा ने कांग्रेस-जेडीएस की सरकार का तख्तापलट किया, वैसी स्थिति दोबारा बने।

दिल्ली दरबार में भी बैटिंग मजबूत नहीं थी
मुख्यमंत्री के दो प्रबल दावेदारों में किसे सीएम बनाया जाए, इस बात पर कांग्रेस आलाकमान में आमराय नहीं थी। ज्यादातर विधायकों के साथ ही राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव (संगठन) के सी वेणुगोपाल सिद्धारमैया का समर्थन कर रहे थे। सोनिया गांधी के साथ जरूर शिवकुमार के अच्छे संबंध हैं, पर उन्होंने इस मामले में ज्यादा दखल नहीं दिया। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और पार्टी के कर्नाटक मामलों के इंचार्ज रणदीप सुरजेवाला किसी का पक्ष नहीं ले रहे थे। ऐसे में दिल्ली दरबार में भी सिद्धारमैया, शिवकुमार पर भारी पड़ गए।