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गेहूं आयात से किसान आफत में , खाद्यान्न उत्पादन लगातार बना रहा नया कीर्तिमान

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नई दिल्ली

खाद्यान्न उत्पादन में कीर्तिमान दर्ज करने के बावजूद सरकार ने गेहूं को शुल्क मुक्त आयात करने का फैसला किया है। छह साल बाद सरकार घटते भंडार और बढ़ती घरेलू कीमतों का सामना करने के लिए गेहूं का फिर से आयात शुरू करने को तैयार है। लगातार तीन वर्षों तक प्रतिकूल मौसम के कारण औसत से कम उत्पादन होने के चलते लिए गए इस निर्णय ने राष्ट्रीय बहस को जन्म दे दिया है। कुछ लोग इसे खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम मानते हैं। दूसरी ओर किसान संगठन और अन्य किसान हितधारक इसे आटा मिल मालिकों और व्यापारियों के दवाब में लिया गया निर्णय बता रहे हैं। इसके घरेलू किसानों पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा 2021-22 के लिए जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 31 करोड़ 60 लाख टन खाद्यान्न उत्पादन हुआ है। खाद्यान्न उत्पादन लगातार नया कीर्तिमान बना रहा है। आजादी के बाद 1950-51 में देश में खाद्यान्न का कुल उत्पादन 5.1 करोड़ टन था, जो बढ़ते-बढ़ते 2012-13 में 25.5 करोड़ टन हो गया। मतलब यह कि खाद्यान्न उत्पादन के मामले में भी बीते दस वर्षों में करीब 5.6 करोड़ टन का इजाफा हुआ है। 1960 के दशक में हरित क्रांति के बाद गेहूं और चावल के उत्पादन में जबर्दस्त वृद्धि हुई और 2015-16 तक, देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में गेहूं और चावल की हिस्सेदारी 78 फीसद हो गई। मगर हाल के वर्षों में भारत के गेहूं उत्पादन में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है। 2021-22 में 11.05 करोड़ टन की अधिकतम फसल हुई थी, लेकिन 2022 और 2023 में भीषण गर्मी ने पैदावार को काफी प्रभावित किया। इसका असर इतना गंभीर था कि सरकार को घरेलू जरूरतों को प्राथमिकता देते हुए मई 2022 में गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस वर्ष 11.2 करोड़ टन की शुरुआती भविष्यवाणियों के बावजूद अब 6.25 फीसद कम होने की उम्मीद है, जिससे पहले से ही कम हो रहे सरकारी भंडार पर और दबाव पड़ने की संभावना है।

उत्पादन में गिरावट और आपूर्ति में कमी के कारण घरेलू गेहूं की कीमतों में थोड़ी-बहुत बढ़त हुई है, जो सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,275 रुपए प्रति कुंतल के आसपास है। इस वृद्धि का थोड़ा-बहुत लाभ उन किसानों को मिलता दिख रहा था, जो मुख्य फसल के रूप में गेहूं पर अधिक निर्भर हैं। बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने और भंडार को फिर से भरने के लिए, सरकार गेहूं पर 40 फीसद आयात शुल्क हटाने पर विचार कर रही है, जिससे निजी व्यापारियों के लिए शायद रूस जैसे प्रमुख निर्यातकों से मामूली मात्रा में आयात करने का रास्ता खुल जाएगा। सरकार का यह कदम पहले से ही खराब मौसम और बढ़ती लागत की मार से जूझ रहे किसानों के लिए आत्मघाती प्रतीत होता है। बीज, उर्वरक, बिजली और पानी जैसे कृषि आदानों पर सबसिडी देने के बावजूद, अधिकांश किसान लगातार संकट में हैं, और आत्महत्या या आंदोलन कर रहे हैं।

हालांकि गेहूं आयात के समर्थकों का तर्क है कि खाद्य सुरक्षा को प्राथमिकता देने के लिए यह एक आवश्यक कदम है। 140 करोड़ से अधिक की आबादी वाला भारत गेहूं की उपलब्धता में किसी भी तरह की कमी को बर्दाश्त नहीं कर सकता। सरकारी भंडार को फिर से भरने से ‘अतिरिक्त भंडारण’ सुनिश्चित होता है, जिसका उपयोग प्राकृतिक आपदाओं या वैश्विक गेहूं बाजार में व्यवधान जैसी अप्रत्याशित परिस्थितियों के मामले में किया जा सकता है। यह दृष्टिकोण स्थिरता को प्राथमिकता देता है और केवल घरेलू उत्पादन पर निर्भर रहने से जुड़े जोखिमों को कम करता है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रति तेजी से संवेदनशील होता जा रहा है। इसके अलावा, आयात को घरेलू गेहूं बाजार को शांत करने और उपभोक्ता कीमतों को कम करने के तरीके के रूप में देखा जाता है। यह बढ़ती खाद्य लागतों से जूझ रहे परिवारों को बहुत जरूरी राहत प्रदान कर सकता है।

यह सच है कि आज भारत को खाद्य सुरक्षा की आवश्यकता है, लेकिन यह घरेलू किसानों की कीमत पर नहीं होनी चाहिए। किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाने और उनकी आजीविका की सुरक्षा करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। शून्य शुल्क पर गेहूं आयात करने का सरकार का निर्णय भारतीय किसानों के लिए गंभीर चिंताएं पैदा करता है। प्राथमिक चिंता भारतीय किसानों पर संभावित नकारात्मक प्रभाव को लेकर है। सस्ते आयात से घरेलू गेहूं की कीमतों में गिरावट आ सकती है, जिससे किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाएगा। इससे उनकी आजीविका और ऋण चुकाने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। समय के साथ अप्रत्याशित मौसम पैटर्न, फसल की कीमतों में उतार-चढ़ाव और अपर्याप्त संस्थागत समर्थन के कारण कर्ज का चक्र और गहरा हो गया है। इससे किसान भविष्य में गेहूं की खेती करने से हतोत्साहित हो सकते हैं, जिससे आयात पर दीर्घकालिक निर्भरता बढ़ेगी और गेहूं उत्पादन में भारत की आत्मनिर्भरता कमजोर हो सकती है। आयात पर निर्भरता बढ़ने से बाजार में अस्थिरता बढ़ सकती है, जिससे किसानों को भविष्य की योजना बनाना मुश्किल हो जाएगा। सरकार द्वारा गेहूं की खरीद में कमी हो सकती है, जिससे किसानों को अपनी फसल बेचने में मुश्किल होगी।

वर्तमान स्थिति में आयात पर निर्भर रहने के बजाय अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता है। सरकार को खाद्य सुरक्षा के लिए दीर्घकालिक, टिकाऊ रणनीति बनाने की आवश्यकता है। इसमें एमएसपी खरीद को मजबूत करना और वैध बनाना सबसे महत्त्वपूर्ण है। एमएसपी को वैध बनाना किसानों को एक सुरक्षा जाल प्रदान करता है, जिससे उन्हें बाजार में उतार-चढ़ाव के बावजूद उनकी फसलों के लिए न्यूनतम मूल्य का आश्वासन मिलता है। यह आश्वासन उन्हें बिचौलियों द्वारा संकटपूर्ण बिक्री और शोषण से बचाता है, जिससे उन्हें वित्तीय बर्बादी के लगातार डर के बिना अपनी कृषि पद्धतियों के बारे में निर्णय लेने में सशक्त बनाया जा सकता है।

इसके अलावा, भारत की गेहूं और चावल जैसी कुछ मुख्य फसलों पर भारी निर्भरता इसे बाहरी झटकों के प्रति संवेदनशील बनाती है। किसानों को दालों, बाजरा और अन्य सूखा प्रतिरोधी फसलों के विकल्पों में विविधता लाने के लिए प्रोत्साहित करने से समग्र खाद्य सुरक्षा और पोषण विविधता को बढ़ाया जा सकता है। इसे लक्षित सब्सिडी, वैकल्पिक फसलों पर जानकारी और प्रशिक्षण प्रदान करने वाली विस्तार सेवाओं और इन फसलों के लिए मजबूत बाजार स्थापित करने के माध्यम से हासिल किया जा सकता है। अपर्याप्त भंडारण सुविधाओं और अकुशल परिवहन प्रणालियों के कारण फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान भारत में खाद्य असुरक्षा के प्रमुख कारण हैं। कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं, बेहतर परिवहन नेटवर्क और मौसम पूर्वानुमान प्रणालियों में निवेश करने से खाद्य सुरक्षा में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है। गेहूं के आयात से जुड़ी जटिलताओं पर गहराई से विचार करते हुए, एक स्थायी खाद्य सुरक्षा रणनीति के लिए वैकल्पिक समाधानों की खोज करने की आवश्यकता है।

आज भारत को खाद्य सुरक्षा की आवश्यकता है, लेकिन यह घरेलू किसानों की कीमत पर नहीं होनी चाहिए। किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाने और उनकी आजीविका की सुरक्षा करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। शून्य शुल्क पर गेहूं आयात करने का सरकार का निर्णय भारतीय किसानों के लिए गंभीर चिंताएं पैदा करता है। प्राथमिक चिंता भारतीय किसानों पर संभावित नकारात्मक प्रभाव को लेकर है। सस्ते आयात से घरेलू गेहूं की कीमतों में गिरावट आ सकती है, जिससे किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाएगा।