दक्षिण एशिया में 2023 में हुए 97 प्रतिशत विस्थापन के लिए मणिपुर हिंसा जिम्मेदार: रिपोर्ट
महिला आयोग ने केरल पुलिस को भेजा नोटिस
न्यायालय का 27 सप्ताह के गर्भ को नष्ट करने की अनुमति देने से इनकार
नई दिल्ली
संघर्ष और हिंसा के कारण दक्षिण एशिया 2023 में में 69,000 विस्थापन हुए, जिनमें से अकेले मणिपुर हिंसा के कारण 67,000 विस्थापन हुए। एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई।
जिनेवा के आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (आईडीएमसी) की रिपोर्ट में इसे 2018 के बाद से भारत में संघर्ष और हिंसा के कारण होने वाले विस्थापन की सबसे अधिक संख्या बताया गया है।
मेइती समुदाय की अनुसूचित जनजाति (एसटी) दर्जे की मांग के विरोध में मणिपुर के पहाड़ी जिलों में तीन मई, 2023 को ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ का आयोजन किया गया था। इस मार्च के कारण मेइती और कुकी समुदायों के बीच जातीय झड़पें हुईं जिसमें अंततः 200 से अधिक लोगों की जान चली गई।
मणिपुर उच्च न्यायालय ने पिछले साल मार्च में मेइती समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देने के लिए केंद्र सरकार को सिफारिशें भेजने को कहा था।
इस पहल को कुकी सहित अन्य स्थानीय अनुसूचित जनजातियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इसके साथ ही भूमि विवाद भी तनाव होने का एक अंतर्निहित कारण था।
रिपोर्ट में कहा गया, ‘तीन मई को चुराचांदपुर जिले में विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा हुई और इंफाल पूर्व, इंफाल पश्चिम, बिष्णुपुर, तेंगनुपाल और कांगपोकिपी सहित अन्य जिलों में फैल गई, जिससे विस्थापन के करीब 67,000 मामले सामने आए।’
विस्थापन के तीन-चौथाई से अधिक मामले मणिपुर के अंदर देखने को मिले जबकि कुल विस्थापितों का लगभग पांचवां हिस्सा पड़ोसी राज्य मिजोरम में और कुछ विस्थापित नगालैंड एवं असम में भी पहुंचे।
जैसे ही हिंसा बढ़ी, केंद्र सरकार ने कर्फ्यू लगा दिया, राज्य में इंटरनेट पर रोक लगा दी गई और अतिरिक्त सुरक्षा बलों को भेजा गया।
महिला आयोग ने केरल पुलिस को भेजा नोटिस
नई दिल्ली
केरल महिला आयोग ने नवविवाहिता महिला की शिकायत को गंभीरता से लेने के पुलिस के रवैये की आलोचना की। महिला ने अपने पति पर दहेज के लिए बेरहमी से पीटने और जान से मारने की कोशिश का आरोप लगाया था। केरल महिला आयोग अध्यक्ष पी सतीदेवी ने पुलिस की आलोचना करते हुए कहा कि पुलिस अधिकारी सोचते हैं कि पति अपनी पत्नी को शारीरिक तौर पर प्रताड़ित कर सकते हैं। उन्हें यह अधिकार है, जबकि ये उनकी ताकत का अपमान है। उन्होंने पुलिस पर तंज करते हुए कहा कि पुलिस का संवेदीकरण प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
वहीं केरल महिला आयोग को कल पीड़िता की शिकायत मिली। इसके बाद पंथिरनकावु पुलिस स्टेशन के एसएचओ को बुलाया गया। उन्होंने बताया कि प्राप्त शिकायत के आधार पर महिला ने ससुराल पक्ष पर गंभीर आरोप लगाए थे। उसने बताया था कि नवविवाहिता को अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। महिला ने शिकायत की कि पुलिस स्टेशन में उसकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया गया।
सतीदेवी ने बताया शिकायत के बाद पुलिस ने नवविवाहिता को इस मामले को सुलझाने के लिए कहा गया। साथ ही यह समझाया गया कि इस बात को भूलकर वह अपने पति के साथ ही रहे। बाद में जब मीडिया से पता चला तो जांच अधिकारी और टीम को बदल दिया गया।
बता दें कि नवविवाहिता के शिकायत के बाद ससुराल पक्ष ने दहेज की मांग के आरोप से इंकार कर दिया था। दूल्हे की मां का दावा है कि उनकी बहू वैवाहिक घर में रहने से इनकार कर रही थी। जिस कारण दोनों पति-पत्नी में बहस शुरु हो गई जो कि लड़ाई में बदल गई। वहीं दुल्हन के पिता ने कहा कि पुलिस ने मामले को गंभीरता से नहीं लिया।' दुल्हन के पिता ने मांग की कि इस मामले को एर्नाकुलम जिले में स्थानांतरित किया जाना चाहिए। दूल्हे को कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
महिला आयोग ने कहा कि सामाजिक मानसिकता में बदलाव होना चाहिए। जिसके कारण शिक्षित महिलाएं दहेज के कारण उत्पीड़न का सामना करती हैं। हाल के दिनों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां पढ़ी-लिखी महिलाओं को शादी से पहले और बाद में दहेज संबंधी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। उन्होंने कहा कि अभी भी ऐसे लोग हैं जो महिलाओं को वस्तु और विवाह को व्यापारिक लेनदेन के रूप में देखते हैं। इसे बदलने के लिए प्रासंगिक कानूनों और नियमों में संशोधन की जरूरत है।"
मंगलवार को इस मामले के सामाचर चैनल पर आने के बाद केरल राज्य मानवाधिकार आयोग (एसएचआरसी) ने स्वत: मामला दर्ज किया। साथ ही जांच के आदेश भी दिए। एसएचआरसी ने कोझिकोड शहर के पुलिस आयुक्त को विस्तृत जांच करने और 15 दिनों के भीतर एक रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया। राज्य की स्वास्थ्य और महिला एवं बाल विकास मंत्री वीना जॉर्ज ने कहा कि पीड़िता को कानूनी सहायता प्रदान की जाएगी।
राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता वी डी सतीसन ने मामले में पुलिस की निष्क्रियता की आलोचना की। उन्होंने कहा कि क्या वह पीड़ित के साथ है या अपराधियों के साथ खड़ी है?
न्यायालय का 27 सप्ताह के गर्भ को नष्ट करने की अनुमति देने से इनकार
नई दिल्ली
उच्चतम न्यायालय ने 20 वर्षीय एक अविवाहित युवती की याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया जिसमें 27 सप्ताह के गर्भ को नष्ट करने देने की अनुमति मांगी गई थी। शीर्ष अदालत ने कहा कि गर्भ में पल रहे भ्रूण का भी जीवन का मौलिक अधिकार है।
न्यायमूर्ति बी.आर.गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह आदेश महिला की अर्जी की सुनवाई के दौरान पारित किया जिसने तीन मई को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा गर्भपात कराने की अनुमति देने से इनकार किए जाने के फैसले को चुनौती दी थी।
याचिकाकर्ता के वकील के मुताबिक पीठ ने कहा, ‘‘हम कानून के विरोधाभासी आदेश पारित नहीं कर सकते।’’ इस पीठ में न्यायमूर्ति एस.वी.एन.भट्टी और न्यायमूर्ति संदीप मेहता भी शामिल थे।
पीठ ने कहा, ‘‘गर्भ में पल रहे बच्चे को भी जिंदा रहने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। इस बारे में आपको क्या कहना है?’’
महिला का पक्ष रख रहे वकील ने कहा कि गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम केवल मां की बात करता है। उन्होंने कहा, ‘‘यह (कानून) केवल मां के लिए बनाया गया है।’’
पीठ ने कहा कि गर्भ अब करीब सात महीने का हो गया है। अदालत ने सवाल किया, ‘‘गर्भ में पल रहे बच्चे के जिंदा रहने के अधिकार का क्या? आप उसका जवाब कैसे देंगे? ’’
वकील ने कहा कि जब तक भ्रूण गर्भ में होता है और बच्चे का जन्म नहीं हो जाता तब तक यह अधिकार मां का होता है। उन्होंने कहा, ‘‘याचिकाकर्ता इस समय अत्याधिक पीड़ा से गुजर रही है। वह बाहर नहीं जा सकती। वह नीट परीक्षा की कक्षाएं ले रही है। वह बहुत ही पीड़ादायक स्थिति से गुजर रही है। वह इस अवस्था में समाज का सामना नहीं कर सकती।’’
वकील ने कहा कि पीड़िता की मानसिक और शारीरिक बेहतरी पर विचार किया जाना चाहिए।
इस पर पीठ ने कहा, ‘‘क्षमा करें।’’
उच्च न्यायालय ने तीन मई के आदेश में रेखांकित किया कि 25 अप्रैल को अदालत ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को मेडिकल बोर्ड गठित करने का निर्देश दिया था ताकि भ्रूण और याचिकाकर्ता की स्थिति का आकलन किया जा सके।
उच्च न्यायालय ने कहा था, ‘‘रिपोर्ट (मेडिकल बोर्ड की) को देखने से पता चलता है कि भ्रूण में कोई जन्मजात असामान्यता नहीं है और न ही मां को गर्भावस्था जारी रखने से कोई खतरा है, जिसके लिए भ्रूण को समाप्त करना अनिवार्य हो।’’
इसने फैसले में कहा, ‘‘चूंकि भ्रूण व्यवहार्य और सामान्य है, और याचिकाकर्ता को गर्भावस्था जारी रखने में कोई खतरा नहीं है, इसलिए भ्रूणहत्या न तो नैतिक होगी और न ही कानूनी रूप से स्वीकार्य होगी।’’
याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय को बताया कि था कि 16 अप्रैल को उसे पेट में दर्द हुआ था और जब अल्ट्रासाउंट कराया गया तो 27 सप्ताह का गर्भ होने की जानकारी मिली जो गर्भपात कराने के लिए कानूनी रूप से तय अधिकतम समयसीमा 24 सप्ताह से अधिक थी।