राजगढ़
राजगढ़ लोकसभा सीट इन दिनों पूरे राज्य में लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चित बनी हुई है, क्योंकि यहां से कांग्रेस ने अपने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को चुनाव मैदान में उतारा है। यह दिग्विजय सिंह का गृह क्षेत्र है, लेकिन भाजपा को यहां पर भी जीत का भरोसा है। इस सीट पर इस बार जातीय समीकरण काफी अहम हो सकते हैं और दिग्विजय सिंह उन्हीं को भुनाने की कोशिश में जुटे हैं।
यह समुदाय इस बार भी अपने से उम्मीदवार की उम्मीद कर रहा था, लेकिन भाजपा ने मौजूदा सांसद को ही टिकट दिया है जो कि किरार समुदाय से आते हैं। कांग्रेस ने यहां से एक बार सौंधिया समुदाय के नारायण सिंह आमलाबे को जिताकर लोकसभा भेजा है। इस चुनाव में कांग्रेस इसी मुद्दे को रख रही है कि कांग्रेस इस समुदाय के साथ रही है, जबकि भाजपा उपेक्षा कर रही है।
तीन जिलों में फैले लोकसभा क्षेत्र की आठ विधानसभा सीटों में भाजपा के पास छह सीटें हैं, जबकि दो सीटें आगर मालवा व सुसनेर कांग्रेस के पास हैं। मध्य प्रदेश और राजस्थान की सीमावर्ती क्षेत्रों में सौंधिया समुदाय फैला हुआ है और राजगढ़ सीट पर इसके लगभग ढाई लाख मतदाता माने जाते हैं। भाजपा के स्थानीय नेता सामाजिक समीकरणों को लेकर सतर्क हैं और उनका मानना है कि दिग्विजय सिंह को पार्टी कतई हल्के में नहीं ले सकती। पार्टी ने अपने सौंधिया समुदाय के नेताओं को भी समाज के बीच उतारा है। दरअसल, इस समुदाय से देवास, उज्जैन, रतलाम और मंदसौर सीटों पर भी प्रभाव पड़ता है। ऐसे में भाजपा इस समुदाय को नाराज नहीं करना चाहती है।
इस क्षेत्र में आने वाला राघौगढ़ विधानसभा दिग्विजय सिंह का गृह नगर है और यहां से उनके बेटे जयवर्धन सिंह विधायक भी चुने गए थे। हालांकि, उनकी जीत का अंतर काफी कम रहा था और उनके भाई लक्ष्मण सिंह तो चाचौड़ा से चुनाव भी हार गए थे, लेकिन दिग्विजय सिंह की बात अलग है। राजगढ़ सीट पर पहले भी भाजपा और कांग्रेस के बड़े नेता चुनाव मैदान में उतरते रहे हैं। भाजपा से पूर्व में पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी और वरिष्ठ नेता प्यारेलाल खंडेलवाल चुनाव लड़ चुके हैं। खंडेलवाल और दिग्विजय सिंह को तो चुनाव में जीत भी मिली थी। ऐसे में बड़े नेताओं के रण माने जाने वाले राजगढ़ को इस बार दिग्विजय सिंह की उम्मीदवारी ने रोचक बना दिया है।