रायपुर
लक्ष्य हासिल करने के लिए अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर देना ही आदमी की असली पहचान है। यह उद्गार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार के थे। चैत्र प्रतिपदा, गुड़ी पाड़वा, हिंदू नव वर्ष के अवसर पर महाराष्ट्र मंडल में आयोजित कार्यक्रम में इस आशय के विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में समन्वय शाखा के प्रभारी विवेक गनोदवाले ने व्यक्त किए।
गनोदवाले ने कहा कि 1 अप्रैल 1889 को नागपुर में जन्मे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार महज 13 साल के थे, तो उनकी मां रेवती बाई और पिता बलिराम हेडगेवार का प्लेग की बीमारी से एक ही दिन निधन हो गया। तत्पश्चात उनके पिता तुल्य चाचा बीएस मुंजे ने उनके पालन- पोषण और शिक्षा- दीक्षा की जिम्मेदारी बखूबी निभाई। डॉ. हेडगेवार को बचपन से ही अन्याय का विरोध करने की आदत थी। नागपुर के नील सिटी हाईस्कूल में एक दिन ब्रिटेन में महारानी के राज्याभिषेक के अवसर पर मिठाई का वितरण किया जा रहा था। डॉ. हेडगेवार ने मिठाई लेने से इनकार करते हुए कहा था कि रानी ब्रिटेन की है, भारत देश की नहीं। उन्होंने मिठाई का पैकेट कचरे के डिब्बे में डाल दिया था।
विवेक के मुताबिक उन दिनों शालाओं में वंदे मातरम बोलने पर प्रतिबंध था। इस प्रतिबंध का डॉ. हेडगेवार ने अपने स्तर पर विरोध करते हुए स्कूल के सभी बच्चों को एकजुट किया और गोपनीय तरीके से सफलतापूर्वक अभियान चलाया। जब ब्रिटिश स्कूल इंस्पेक्टर ने एक-एक क्लास का निरीक्षण किया, तो प्रत्येक कक्षा में उनके प्रवेश करते ही वंदेमातरम का नारा गूंजने लगा। बच्चों के इस रवैये से खिन्न ब्रिटिश निरीक्षक ने स्कूल को बंद करवा दिया। परेशान अभिभावकों ने किसी तरह छह- सात महीने के बाद स्कूल को खुलवाया, लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों की एक शर्त थी कि बच्चों को माफी मांगना होगा। डॉ. हेडगेवार ने माफी मांगने से इनकार कर दिया। तो अभिभावकों ने एक प्रयास किया कि माफी मांगने की बजाय बच्चे सिर्फ सहमति से सिर हिलाएंगे। बच्चों ने ऐसा ही किया और लगभग सात महीने से बंद स्कूल खुल सका। डॉ. हेडगेवार कोलकाता के मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में डॉक्टरी की शिक्षा पूरी कर साल 1916 में कोलकाता से वापस नागपुर आ गए।