Home मध्यप्रदेश आयुर्वेदिक औषधियों के संरक्षक व संवाहक वैद्यों की कार्यशाला

आयुर्वेदिक औषधियों के संरक्षक व संवाहक वैद्यों की कार्यशाला

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जिला प्रशासन की विशेष पहल

    डिंडौरी

  कलेक्टर  विकास मिश्रा के मार्गदर्शन में जनपद पंचायत बजाग के ग्राम चांडा में ’’वैद्य शास्त्र’’ बैगा क्षेत्रों में आयुर्वेदिक औषधियों के संरक्षक व संवाहक वैद्यों की कार्यशाला आयोजित की गई। जिसके मुख्य अतिथि कु. लक्ष्मी गढवाल को कलेक्टर रूपी बनाया गया जिन्होंने कार्यक्रम के शुभारंभ पर सरस्वती मां के छायाचित्र में दीप प्रज्जवलित एवं माल्यापर्ण कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। जिसमें आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र के बैगा जनजाति के पंरपरागत चिकित्सक मौजूद रहे। अपनी आर्युवेदिक परंपरा को संरक्षित करने के उद्देष्य से आज जिला प्रशासन के द्वारा विषेष पहल कर जिला आयुष विभाग की सहयोग से जिले में निवासरत ग्रामीण अंचलों के परंपरागत आर्युवेदिक डॉक्टरों की कार्यशाला का आयोजन किया गया जिसमें चिकित्सकों के साथ साथ उनके परिवार के सदस्यों के साथ साझा किया।

          म.प्र. और छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले बैगा जनजाति के आदिवासी अपनी भाषा, रीति रिवाज, धार्मिक विश्वास विचार एवं परंपराओं से बंधी है। मनोरंजन के लिये इनके अपने संगीत, लोक नृत्य, लोक नाट्य, लोक गीत प्रहसन पौराणिक एवं दंत कथायें है। अपनी जीवनोपयोगी के लिये ये वनवासी अधिकतर वन्य प्राणी एवं वनस्पति पर निर्भर रहते हैं। चाहे उनका भोजन हो, तन ढकने के वस्त्र, घर बनाने की सामग्री हो अथवा खेती करने के औजार। यहा तक की रोगों को दूर करने के लिये इनकी अपनी ही चिकित्सा प्रणाली होती है। जिनमें मुख्यतः तंत्र मंत्र, जड़ी बूटी से लेकर जांगम दन तक का उपयोग करते हैं। जिसके कारण ये लोग असाध्य से असाध्य रोगों का भी उपचार कर लेते हैं। जंगलों से प्राप्त इन जड़ी बूटियों की इन वनवासियों को अच्छी पहचान रहती है। प्रदेश में जहां कई जनजातियां विकास की ओर अग्रसर है, वहीं बैगा जनजाति आज भी अपने परम्परागत रीति रिवाजों और धार्मिक संस्कारों के साथ विकास की दौड़ में प्रयासरत हैं। बैगा स्वयं को जंगल का राजा कहते हैं। वे वनों के साथ आंख खोलते हैं और वनों के साथ सोते हैं।

          पुराने समय में इन जड़ी बूटियों का प्रचार इन वनवासियों तक ही सीमित था। इसके पश्चात आयुर्वेद ने इसका व्यावसायिक रुप ले लिया। बैगा जनजाति के लोग सदियों से वैध का कार्य करते आ रहे हैं। ये लोग असाध्य से असाध्य रोगों का उपचार अपने वन परिसर में पायी जाने वाली जड़ी बूटियों से करते आ रहे हैं। इस जनजाति के लोग अपने आप को सुषेन वैध के कुटुब का बताते हैं। जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी थी तब सुषेन वैध ने संजीवनी देकर उनको जीवन दान दिया था।

    एलर्जिक अस्थमा एवं दमा, श्वांस रोगों में पारस पीपर के बीजों को एक बीज प्रतिदिन सुबह शाम पान के साथ एक माह तक खाने से श्वांस रोग ठीक हो जाता है। हर्रा के पत्ते में जो फल लगता है उसे पनहर्रा कहते हैं। इसका पाउडर बनाकर हर्रा, बहेड़ा, आंवला एवं अकवन के फूल में इस पाउडर को सेंधा नमक के साथ सुबह शाम तीस दिनों तक देने से श्वांस रोगों में स्थाई राहत मिलती है। चकौड़ा के बीजों का काढ़ा बनाकर सुबह उठते ही पीने से श्वांस रोग में राहत मिलती हैं इसी प्रकार हथ्याजोड़ी, इंद्रायण की जड़, आंवला, काली हल्दी एवं सत्यानाशी की जड़ इनमें से किसी एक के सेवन करने से भी श्वांस रोग हमेशा के लिये ठीक हो जाता है।

         बैगा जनजाति के वैध विज्ञान को भी चुनौती देते हैं। बैगा जनजाति के लोग शरीर की हड्डी टूटने, बावासीर तथा दमा श्वांस, एलर्जिक अस्थमा का इलाज गारंटी से स्थाई तौर पर कर लेते हैं। दमा श्वांस एलर्जिक अस्थमा के लिये ये लोग सफेद अकवन की जड़, काली हल्दी और अजवाइन को अभिमंत्रित करके कूटकर उसका पाउडर बनाकर गुड़ के साथ खाने को देते हैं, जिससे पुराने से पुराना दमा, श्वांस के रोगी को मात्र चालीस दिनों की खुराक में जीवन भर के लिये स्थाई आराम मिल जाता है।

सर्प दंश का उपचार भी जड़ी बूटियों से…..
         सर्प काटने पर इंद्रावन की जड़ को खिलाते हैं तथा करौंदा की जड़ को पानी में उबालकर पिलाने से या शहर की जड़ों को चबाने से जा का जहर उत्तर जाता है। जिस स्थान पर सर्प ने काटा होता है। उस स्थान पर ब्लेड से खुरच कर उसके उसके ऊपर रस्सी से बांध देते हैं। जिस स्थान पर सर्प ने काटा है उस स्थान पर मुरगी के चूजे की गुदा लगाते हैं। जिससे चूजा मर जाता है। यह क्रिया तब तक की जाती है. जब तक की जहर नहीं उत्तर जाता। सांप के जहर उतरते ही चूजों का मरना बंद हो जाता है। ये लोग सर्प के विष को उतारने के लिये जगार का आयोजन भी करके मंत्रों से सर्प का विष उतार लेते हैं।

कुत्ता काटने का उपचार
           इसी प्रकार कुत्ता काटने पर राहर दाल के पौधे में पाये जाने वाला एक प्रकार का कीड़ा मक्के का पुष्पांग तथा इंदावन की जड़ को पीसकर गुड़ या महुआ की शराब के साथ पिलाते हैं। जिसके कारण पेशाब से खून के कतरे गिरते हैं। जिसे ये लोग पिल्ला गिरना कहते हैं।
           मोरपंखी (यह एक छोटा फर्न है जो पथरीले क्षेत्र में पैदा होता है) के रस को पिलाने से पेट के कीड़े (पटार) मर जाते हैं

और रोगी को आराम मिल जाता है। गले में दर्द होने पर शहद का सेवन करने और गले में शहद लागाने से गले का दर्द ठीक हो जाता है। कान में दर्द होने पर बंगाली तम्बाखू (एक प्रकार की तम्बाखू जिसके पत्ते छोटे छोटे होते हैं) की पत्तियों को कुचलकर उसके रस को छानकर दो दो बूंद रस दिन में दो बार, दो तीन दिन तक डालने से कान का पकना और दर्द करना ठीक हो जाता है।

मोतीझिरा या टायफाइड बुखार
     मोतीझिरा या टायफाइड बुखार में बनछुरिया बेल की जड़ को पीसकर, उसके अर्क को पानी में मिलाकर दिन में तीन बार तीन दिन तक दिया जाता है। किरकिस यह कांटेदार पेड़ होता है। इसके पत्तों के रस को दिन में तीन बार तीन दिन तक देते हैं। गुरबेल और गटारन के रस को निरंतर बुखार आने पर देते हैं या खिरसारी का पत्ता, महलोन का पत्ता एवं आंवले का पत्ता शक्कर के साथ देने से मोतिझिरा ठीक हो जाता है या लिपरिस कांदा को पीसकर गुड़ के साथ देते हैं। तिनमोना की जड़ का काढ़ा बनाकर पिलाने से भी मोतीझिरा ठीक हो जाता है। इसी प्रकार मोतिझिरा में गुरबेल की बेल को पानी में उबालकर नहलाते हैं। तीखुर की जड़ को पीसकर पुल्टिस बनाकर सिर पर रखने से बुखार तुरंत उतर जाता है।

मलेरिया बुखार
      मलेरिया बुखार में हुलहुलिया, छिंदी की जड़, बडी गटारन, गुरबेल और तुलसी का काढ़ा बनाकर पीते हैं या वन तिली के एक चम्मच दाने पानी के साथ एक बार देने से मलेरिया बुखार उतर जाती है। पाड़िन की जड़ को पीसकर दिन में तीन बार देने से मलेरिया बुखार उतर जाती है। पीपल की दातून करें, उसकी पहली पीक थूक दें. बाकी गुटक लें, तो कैसा भी मलेरिया हो ठीक हो जाता है। लड़ैया के पत्ते को प्रत्येक बुधवार या रविवार को सुंधाने से भी मलेरिया बुखार ठीक हो जाता है। पत्थर धनिया के उपयोग से भी बुखार उतर जाता है। तुलसी के काढ़ा का सेवन करने से सर्दी जुकाम ठीक हो जाता है।

छोटे बच्चों को निमोनिया हो जाने पर उसे काली हल्दी को चंदन के समान घिसकर वटाने से निमोनिया ठीक हो जाता है। दांत दर्द के लिये चित्तावर की डेढ़ पत्ती को दांत में दबाने से दांतों में लगे कीड़े मर जाते हैं। इसी प्रकार आक या अकवन के दूध की दो तीन बूंद दांत में लगाने से दांत का दर्द ठीक हो जाता है। भकरेंड़ा की दातून तीन दिन तक करने से दांत के कीड़े मर जाते हैं और दांत दर्द ठीक हो जाता है। छिवला (पलाश) की जड़ से दातून करने और छाल का मंजन करने से पायरिया मुंह की बदबू ठीक हो जाती है। दांतों के हिलने पर मरीज को बिना बतलाये मुर्गी की ताजी बीट को काड़ी में लगाकर दर्द वाले स्थान पर लगाने से थोड़ी देर में दांत गिर जाते हैं। पैरों के तलवों में गांठ पड़ जाना यहां पर ये लोग कील मारना कहते हैं। क्योंकी आदिवासीयों को जंगलों में चलने से पैरों के तलवों में कई गठानें पड़ जाती हैं, जो बाद में सख्त होकर दर्द करने लगती हैं।

मिर्गी और बवासीर का उपचार
    पाइल्स या बवासीर हो जाने पर उसके इलाज के लिये इनके पास अनेकों शर्तियां जड़ी बूटियां हैं, जैसे- हुरुम कंद, तिली, वन तुलसी, हुरहुर, पीपर, विलाई कंद, जयमंगल, सूरन कंद, करईया का पौधा आदि। बिलाई कंद को पानी में उबालकर उसके पानी को दिन में दो बार तीन दिन तक पिलाने से बावासीर ठीक हो जाती है। इसी प्रकार सूरन कंद को उबालकर उसका छिलका हटाकर उसकी सब्जी खाने से भी बवासीर ठीक हो जाती है। करईया के पौधे की छाल को पीसकर गुड़ के साथ मिलाकर दिन में दो बार इक्कीस दिन तक देने से बवासीर जड़ से ठीक हो जाती हैं

मिर्गी या चक्कर आने पर ये लोग साल वृक्ष की गोंद से होम – धूप देते हैं और बूढ़ा देव का नाम लेकर मंत्र पढ़कर दिन में तीन बार झाड़ने से मिर्गी रोग ठीक हो जाता है। चक्कर आने पर लड़ैया का पत्ता सुधाने से रोगी ठीक हो जाता है। मिर्गी के रोगी को करौदा की दो पत्ती बेर की आधी पत्ती चक्कर आने पर काली मिर्च के साथ तीन दिन तक देने से रोगी को लाभ मिलता है। दूधिया की बेल और किवांच की जड़ को पीसकर रोगी को सुबह शाम सात दिनों तक देने से चक्कर आना बंद हो जाता है। बड़ के वृक्ष की जड़ का अर्क सेवन करने से मिर्गी के रोगी को आराम मिलता है। गोरखमुंड़ी के सेवन से भी मिर्गी के रोगी को आराम मिलता है। मूत्र विकार में जरीया पौधे की ढ़ाई पत्ती को चबाकर उसके रस को निगलने से तथा उसकी पत्तीयों को चबाकर उसे गुदी में लगाने से पेशाब की जलन ठीक हो जाती है। जोगी लटी, लक्ष्मण कंद, दूधिया की जड़, काली मूसली, सफेद मूसली आदि का उपयोग शक्ति वर्धक के लिये करते हैं।

    निम्न जडी बूटियों का प्रयोग
डिंडौरी के बैगा आदिवासी मुख्यतः निम्न जड़ी बूटियों का उपयोग करते हैं। जो इनके जंगलों में बहुतायत से प्राप्त हो जाती है। जिनमें मुख्यतः वन अदरक, बांस की पिहरी, कियो कंद, तेलिया कंद, वन प्याज, वंश लोचन, सरई की पीहरी, काली हल्दी, (कुरकूमा सीजिया) वन सिंघाड़ा, ब्रम्हरकास, तीखुर, बैचांदी, बिदारी कंद, बन सूरन, माई बेला की जड़, अंडी की जड़, चिटकी की जड़, बेर की जड़, हर्रा, बहेरा, आंवला, बन अंडी, मैनहर, भकरैंडा, भैंस बच, पारस पीपर, लजनी, छोटी दूधिया, नागरमोठा, जरीया, रुहीना, पथरचटा, हड़ जुड़ी, महुआ, काली धान, खांडा घार, चिरायता, सफेद मूसली, लडैया का पत्ता, गुड़मार, बैंच भाजी, चकाँडा भाजी, पकरी भाजी, हड़सिंघड़ी, ब्राम्ही, जोगी लटी, बनछुरिया की बेल, भूतन बेल, सरई छाल, कूढ़ा छाल, साहू छाल, मैदा छाल, अर्जुन छाल, विघा नाशी, सिरमिली, हत्था जोड़ी, उल ठली, कुब्बी, हिरन चरी, गंवार पाठा, पाताल कुम्हड़ा, जटा शंकरी, वन तुलसी, भोज राज, तेंदू, धननियां, बड़ी सतावर, नागदाना, करई, हुलहुलिया, छिंदी, धनवंतरी, भिलवा, लक्ष्मण कंद, पोटीया कंद, केसरी कंद, हुरुम कंद, भैंसा ताड़, किटी मार कंद, बांदी सांड़, बड़ी ऐंठी, छोटी ऐंठी, बहला ककोरा, आमी हल्दी, कुरकुट के पत्ते आदी जड़ी बूटियों का उपयोग जीवन भर चलता रहता है।
   कलेक्टर विकास मिश्रा ने वैद्य कार्यषाला कार्यक्रम के दौरान बताया कि ग्राम पंचायत चांडा बैगाचक के केन्द्र बिन्दु चांडा विकासखंड बजाग में आज बैगा क्षेत्रों में आयुर्वेदिक औषधियों के संरक्षक व संवाहक वैद्यों की कार्यषाला आयोजित की गई। जिसमें 40 परंपरागत आर्युवेदिक डॉक्टर शामिल हुए। जिन्होंने एक-एक करके अपनी जडी बूटियां एव उनसे होने वाले उपचार से बीमारियों की जानकारी दी। यह जिला प्रषासन की विषेष पहल की जा रही है जिससे बैगा जनजातियों के जडी बूटियां एवं इलाज डॉक्टर संरक्षित कर आने वाले इनका लाभ मिल सके इसी के तहत यह कार्यषाला आयोजित की गई।

   मैडल साल, कम्बल से कार्यषाला में शामिल समस्त आर्युवेदिक परंपरागत ग्रामीण चिकित्सकों को मैडल पहनाकर सम्मानित किया गया। और सभी वैद्यों को सामुहिक भोजन कराया गया।  कार्यक्रम के अतिथि डॉ. विजय चौरसिया, संतोष परस्ते जिला आयुष अधिकारी,  ब्रजभान गौतम बीआरसी,  तीरथ परस्ते प्राचार्य चांडा,  आर के जाटव एसडीओ वनविभाग, डॉ. मेथानिया व आयुष विभाग के समस्त स्टॉफ सहित जिले के अन्य विभाग के अधिकारी एवं कर्मचारी मौजूद रहे।