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पाने की इच्छा में जो आनंद है वो पा लेने में कहां: मैथिलीशरण भाई जी

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रायपुर
पाने की इच्छा में जो आनंद है वो पा लेने में कहां है? संसार जो मिलन कराता है वो मिलन नहीं हैं। जिस मिलन की पूर्ति से इच्छा समाप्त हो जाए और लगे कि मिले ही नहीं। यदि हमने भगवान को पा लिया तो वहां क्या कुछ और मांगेगे?  किसी कार्य का उद्देश्य उसकी निवृत्ति होना चाहिए। इच्छाओं की पूर्ति हो जाना ही मुक्ति का स्वरूप है। निवृत्ति व प्रवृत्ति की स्मृति से जो ऊपर है वह भरत जी हैं। उन्हे कोई भान ही नहीं है कि उनमें क्या विशेषता है। व्यक्ति को लक्ष्य का निर्धारण करना चाहिए। माता पिता की सेवा ही धर्म है, इससे बढ़कर कुछ नहीं। ग्रंथों में भी सेवा को सबसे बड़ा धर्म बताया गया है।

मैक कॉलेज आॅडिटोरियम में चल रही श्रीराम कथा सत्संग में मैथिलीशरण भाई जी ने बताया कि जीते जी भी जो लोग भगवान में लीन होते हैं वे ब्रम्हलीन कहलाते हैं। ब्रम्हलीन का मतलब मृत हो जाना ही नहीं समझें। कौन है साधु,असली साधु तो वह है जो भक्ति व तपस्या में लीन रहता है। साधु दो प्रकार के होते हैं एक वे जो तप करते हैं और दूसरा वे जो सांसारिक जीवन में भी भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं। एक सच्चे साधु में जो लक्षण होते हैं वे सब भरत जी में हैं। साधु का चरित्र क्या है जो दूसरे के दुख को छुपा लेता है और गुण को प्रगट कर देता है। कपास की तरह होता है साधु का चरित्र।

संसार में लोग समझते हैं कि जो योजना बनायी थी उसे पूरा कर लिया तो लक्ष्य की पूर्ति हो गई। प्रवृत्ति यानी किसी  करने का उद्देश्य उसकी निवृत्ति होना चाहिए। इच्छाओं की भी एक सीमा होनी चाहिए। यदि आपका लक्ष्य निश्चित हो जाएगा तो निवृत्ति हो जायेगी। जहां आप पहुंचे हैं वहां से लौटकर आना भी जरूरी है। दूसरों से किसी प्रकार राग द्वेष न रखें। तभी आपके जीवन में कृतज्ञता आयेगी। जो सिद्धियों का त्याग करते हैं उन्हे वैरागी कहते हैं। यदि सिद्धियों का प्रयोग कर रहे है तो वह संसारी है,ज्ञानी या वैरागी नहीं।

श्रवण कुमार का दृष्टांत सुनाते हुए कि संसार में इनसे बड़ा माता पिता की सेवा करने वाला दूसरा कोई नहीं। माता पिता की सेवा ही धर्म  है,इससे बढकर कुछ नहीं। ग्रंथों में भी सेवा को सबसे बड़ा धर्म बताया गया है। दशरथ जी महाराज के शब्दभेदी बाण से श्रवण कुमार मारा गया,यह पता चलने पर उनके माता पिता ने राजा दशरथ को श्राप दे दिया। कभी किसी को श्राप मत दीजिए, यदि फलीभूत हो गया तो उसे अहंकार आ जायेगा। शब्दभेदी भी बहुत सोच समझकर चलाना चाहिए। यहां तात्पर्य सिर्फ बाण से ही नहीं है बल्कि शब्दों का तीर भी लोगों का दिल दुखाने वाला होता है। इन्होने कहा और मान लिया या बोल दिया। भगवान की चरणों से प्रेम इसका मतलब ये नहीं कि शब्दभेदी बाण (शब्द) चलायेंगे। तत्व क्या है जब तक व्यक्ति समझ नहीं लेता।