कैंसर एक जानलेवा बीमारी। इस बीमारी के साथ इसका इलाज भी तकलीफदेह होता है। गरीब देशों में हर 15 में से एक बच्चे की मौत कैंसर का सही इलाज नहीं मिलने के कारण हो जाती है। इसका खुलासा लैंसेट ऑन्कोलॉजी जर्नल में पब्लिश एक रिसर्च में हुआ। रिसर्च में कहा गया कि गरीब देशों में कैंसर पीड़ित 0-21 साल तक के 45% बच्चे सही ट्रीटमेंट न मिलने से या ट्रीटमेंट में कॉम्प्लिकेशन आने से मर जाते हैं। ये आंकड़ा विकसित देशों में 3-5 प्रतिशत है।
रिपोर्ट के मुताबिक, कैंसर से पीड़ित 90% बच्चे गरीब देशों में रहते हैं। यहां उनके जीवित रहने की संभावना 20 प्रतिशत से भी कम होती है। गरीब देशों में सही इलाज न मिलने और ट्रीटमेंट में कॉम्प्लिकेशन आने के कई कारण हैं। जैसे- ट्रीटमेंट का महंगा होना। इलाज में लाखों रुपए खर्च होते हैं। लोग इसे अफोर्ड नहीं कर पाते। भारत में इलाज का खर्च 5 लाख से 27 लाख पहुंच जाता है। वहीं, साउथ अफ्रीका जैसे देशों में ये खर्च 51 लाख तक पहुंच जाता है। कुपोषण भी एक कारण है। गरीब देशों में कुपोषण को रेट काफी ज्यादा है। बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता जिससे उनका इम्यून सिस्टम कमजोर रह जाता है। इस कारण शरीर कैंसर के लड़ नहीं पाता। वठ की रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 में 5 साल से कम उम्र वाले 4.5 करोड़ बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। कैंसर के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली कीमोथैरेपी, सर्जरी, रेडिएशन थैरेपी के साइड इफेक्ट्स बच्चों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं, जिसके चलते उन्हें जिंदगी भर खास देखभाल की जरूरत पड़ सकती है।
कीमोथैरेपी शुरू होते ही बच्चों का ब्लड सेल्स काउंट घट जाता है, बाल गिर जाते हैं, डायरिया और चक्कर आने लगते हैं। रेडिएशन थैरेपी का बच्चे के दिमाग के विकास पर भी बुरा असर पड़ता है। जिससे उसे हाथों और आंखों के कोऑर्डिनेशन, कद लेवल, पढ़ाई, याददाश्त, एकाग्रता के अलावा व्यवहार से जुड़ी समस्याएं भी झेलनी पड़ती हैं। इसीलिए अगर 3 साल तक के बच्चे को ब्रेन ट्यूमर हो तो डॉक्टर रेडिएशन थैरेपी का इस्तेमाल करने से बचते हैं। वर्ल्ड हेल्थ ऑगेर्नाइजेशन (हऌड) के मुताबिक, दुनिया में हर साल करीब एक करोड़ लोग कैंसर की वजह से अपनी जान गंवा देते हैं। यहां सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि 2010 की तुलना में 2019 में करीब 21 फीसदी ज्यादा मौतें कैंसर से हुई हैं। 2019 में एक करोड़ लोगों की मौत कैंसर से हुई थी।
हालांकि, अब कैंसर का इलाज संभव है, बशर्ते वो समय पर डिटेक्ट हो जाए। वलर्ड वॉर 2 के दौरान अमेरिका के वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि लिम्फोमा पर नाइट्रोजन मस्टर्ड प्रभावी हो सकता है। इसे वॉर में इस्तेमाल किया जाता था फिर इसका परीक्षण करने के लिए एक क्लिनिकल ट्रायल शुरू किया गया। एक 48 वर्ष के व्यक्ति जिसे लास्ट स्टेज का लिम्फोसारकोमा (एक प्रकार का जानलेवा कैंसर) था, उसे इस मिश्रण की 10 खुराकें दी गईं, जो कि मानक से लगभग 2.5 गुना अधिक थी, क्योंकि किसी को पता नहीं था कि उसे कितना देना है। दो दिनों के भीतर, डॉक्टरों ने देखा कि उसके ट्यूमर छोटे हो गए थे और ट्रीटमेंट के अंत तक वे गायब हो गए। तो ऐसे में कीमोथेरेपी की शुरूआत हुई। हालांकि, आधिकारिक तौर पर 1958 के आस-पास कीमोथेरेपी ट्रीटमेंट की शुरूआत हुई।