नई दिल्ली
तमाम नीतियों, प्रयासों और वित्तीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद पॉक्सो के मामलों की सुनवाई के लिए बनाई गई विशेष त्वरित अदालतों में 31 जनवरी 2023 तक देश में दो लाख 43 हजार 237 मामले लंबित थे। एक शोधपत्र "जस्टिस अवेट्स : ऐन एनालिसिस ऑफ द एफिकेसी ऑफ जस्टिस डेलिवरी मैकेनिज्म्स इन केसेज ऑफ चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज" के अनुसार अगर लंबित मामलों की इस संख्या में एक भी नया मामला नहीं जोड़ा जाए तो भी इन सारे मामलों के निपटारे में औसतन नौ साल का समय लगेगा।
शोधपत्र के अनुसार मौजूदा हालात में जनवरी, 2023 तक के पॉक्सो के लंबित मामलों के निपटारे में अरुणाचल प्रदेश को 30 साल लग जाएंगे, जबकि दिल्ली को 27, पश्चिम बंगाल को 25, मेघालय को 21, बिहार को 26 और उत्तर प्रदेश को 22 साल लगेंगे।
वर्ष 2022 में पॉक्सो के सिर्फ तीन फीसदी मामलों में सजा सुनाई गई।
यह शोध-पत्र इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (आईसीपीएफ) ने जारी किया है।
यौन शोषण के शिकार बच्चों के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2019 में एक ऐतिहासिक कदम के जरिए फास्ट ट्रैक- स्पेशल अदालतों के गठन किया था। हर साल इसके लिए करोड़ों की राशि जारी की जाती है।
फास्ट ट्रैक – स्पेशल अदालतों जैसी विशेष अदालतों की स्थापना का प्राथमिक उद्देश्य यौन उत्पीड़न के मामलों और खास तौर से यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम से मुड़े मामलों का त्वरित गति से निपटारा करना था।
केंद्रीय योजना के रूप में इसे वर्ष 2026 तक जारी रखने के लिए 1900 करोड़ रुपए की बजटीय राशि के आबंटन को मंजूरी दी है। स्पेशल अदालतों के गठन के बाद माना गया कि इस तरह के मामलों का साल भर के भीतर निपटारा कर लिया जायेगा लेकिन इन अदालतों में आए कुल 2,68,038 मुकदमों में से महज 8,909 मुकदमों में ही अपराधियों को सजा सुनाई जा सकी है।
अध्ययन से यह उजागर हुआ है कि प्रत्येक स्पेशल अदालत ने साल भर में औसतन सिर्फ 28 मामलों का निपटारा किया।