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रेलवे को सौ रुपये कमाने के लिए 107 रुपये खर्च करने होते हैं !

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नईदिल्ली

 रेलवे (Indian Railways) की माली हालत ठीक नहीं दिख रही है। देश के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, जिसे आम भाषा में सीएजी (CAG) कहते हैं, के आंकड़े बताते हैं कि साल 2014-15 में इसे सौ रुपये कमाने के लिए 91 रुपये खर्च करने होते थे। यह साल 2021-22 में बढ़ कर 107.39 रुपये हो गया है। इसका असर इसके निवेश पर पड़ना तय है। साथ ही ट्रेन में डिब्बों के कंपोजिशन पर भी इसका असर दिख रहा है। ट्रेन में अब वैसे डिब्बों की संख्या बढ़ रही है, जिसमें कमाई ज्यादा हो, घाटा कम हो। इतना होते हुए भी अधिकतर ट्रेनों में लोगों को जरूरत पर कंफर्म सीट या बर्थ नहीं मिल पाते हैं।

अभी भी यात्रियों को नहीं मिल पा रही है सीट

पिछले दिनों ही दीपावली और छठ में ढेरों स्पेशल ट्रेन (Chhath Special Trains) चलने की खबर आई। तब भी रेगुलर ट्रेन के जनरल और स्लीपर क्लास के डिब्बे को तो छोड़ दीजिए, एसी क्लास में भी भेड़-बकरी की तरह यात्री ढुंसे थे। गुजरात से तो एक खबर आई थी कि एसी थ्री क्लास में एक पैसेंजर के पास कंफर्म टिकट था, लेकिन वह अपनी सीट तक पहुंच ही नहीं पाया। नहीं पहुंचने की वजह ट्रेन में यात्रियों की भारी भीड़ थी। अब बिहार से वापस लौटने के लिए भी ट्रेनों में यही हालत है। किसी भी अच्छी ट्रेन में आपको कंफर्म सीट या बर्थ नहीं मिलेगा।

ऐसी स्थिति क्यों हुई

रेलवे को देखिए तो एक तरह से कारोबारी संगठन की ही तरह काम करता है। यात्री उनके लिए ग्राहक हैं। व्यापारिक संगठन के लिए ग्राहक जुटाना भारी काम होता है। लेकिन रेलवे के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। रेलवे के पास तो कुछ रूट पर बारहो महीने ग्राहकों का तांता लगा है, लेकिन वह उन्हें कंफर्म बर्थ या सीट ही नहीं दे पाता। हालांकि वह चाहे तो इस बढ़ती डिमांड को पूरा कर सकता है, लेकिन इसके लिए कैपिसिटी क्रिएशन करना होगा। कैपिसिटी क्रिएशन के लिए पैसा चाहिए। लेकिन इस समय रेलवे के पास पैसा ही नहीं है।

क्यों हुई है दिक्कत

रेलवे की आर्थिक स्थिति को देखते हुए इस समय एक कहावत की याद आ जाती है। यह कहावत है आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया। रेल मंत्रालय के आंकड़े देख कर आपको भारतीय रेल की खस्ता माली हालत का अंदाजा लगाना आसान हो जाएगा। पिछले साल की सीएजी रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि इस समय रेलवे 10 वर्ष के अपने सबसे बुरे समय से गुजर रहा है। हालत यह है कि 100 रुपये की कमाई करने के लिए उसे 107 रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। रेलवे की भाषा में इसे ऑपरेटिंग रेशियो कहा जाता है। इस समय रेलवे का ऑपरेटिंग रेशियो 107 है, इसका मतलब है कि उसे 100 रुपये कमाने के लिए 107 रुपये खर्च करना पड़ रहा है।

10 साल पहले क्या थी स्थिति

सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2011-12 के दौरान रेलवे का ऑपरेटिंग रेशियो 94.85 रुपये था। साल 202-13 में यह और सुधर कर 90.19 रुपये हो गया। जब नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई थी, मतलब कि साल 2014-15 में रेलवे का ऑपरेटिंग रेशियो 91.25 रुपये था। यह साल 2021-22 में बिगड़ कर 107 रुपये पहुंच गया है।

यात्रियों को क्यों नहीं मिलती है सीटें

अभी आप रेलवे की अधिकतर रेगुलर ट्रेनों में देख लीजिए, आपको कंफर्म बर्थ या सीट नहीं मिलेगी। यहां कहा जाता है कि जिन रूट्स पर ज्यादा डिमांड है, वहां ज्यादा ट्रेन क्यों नहीं चला देते। ऐसा रेलवे करता रहा है। त्योहारों में रेलवे स्पेशल ट्रेन चला देता है। लेकिन उसका कोई माई-बाप नहीं होता। पिछले छठ की भीड़ में एक राजधानी स्पेशल ट्रेन चली थी। जिसमें भाड़ा तो हवाई जहाज के बराबर था, लेकिन ट्रेन घंटों देरी से गंतव्य तक पहुंची थी। इसका मूल वजह है कैपिसिटी नहीं होना।

रेलवे की 40 फीसदी रूट्स का हो रहा है ओवरयूटिलाइजेशन

रेल मंत्रालय ने फरवरी 2015 में एक व्हाइट पेपर पेश किया था। उसमें बताया गया था कि भारतीय रेल के 1219 लाइन सेक्शन ओवर यूटिलाइज्ड हैं। इनका 100 फीसदी से भी ज्यादा उपयोग किया जा रहा है। यह भारतीय रेल का करीब 40 फीसदी ट्रैक है। वहां अलग से पटरी बिछाने की जरूरत है। जहां अभी दो लाइनें हैं, वहां तीसरी और चौथी लाइन बिछाने की जरूरत है। जहां इकहरी लाइन है, वहां उसे दोहरी लाइन में बदलने की जरूरत है। लेकिन रेलवे के पास इतने पैसे ही नहीं हैं कि उस पर काम किया जा सके।

ट्रैक ओवरयूटिलाइजेश देता है दुर्घटना को जन्म

रेलवे के जानकार बताते हैं कि जब किसी ट्रैक का ओवर यूटिलाइजेशन होता है तो फिर उसके रूटिन मेंटनेंस के लिए वक्त नहीं मिल पाता है। रेलवे में ट्रैक मेंटनेंस का जो मैनुअल बना है, उसके मुताबिक किसी भी सेक्शन में मेंटनेंस के लिए चार से छह घंटे का वक्त हर रोज चाहिए। इसी वक्त के दौरान ट्रैक का मेंटनेंस होता है। यदि उसी समय ट्रेन आती-जाती रहेगी तो फिर पटरियों का मैंटनेंस कैसे होगा। अभी हालत यह है कि व्यस्त सेक्शन पर ट्रैक मेंटनेंस के लिए पर्याप्त वक्त मिल ही नहीं पाता।