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कभी 900 कर्मचारियों से गुलजार रहे गांधी आश्रम में आज बचे हैं सिर्फ 28, मुश्किल से मिल पा रही सैलरी

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संतकबीरनग
यूपी के संतबीरनगर जिले के मगहर में कभी पूर्वांचल का सबसे बड़ा गांधी आश्रम हुआ करता था। इस केंद्र पर 900 लोगों को रोजगार मिलता था। आज सिर्फ 28 बचे हैं जो किसी तरह इस केन्द्र को जिंदा रखे हैं। इन्हें मुश्किल से वेतन मिल पा रहा है। मगहर में जहां सद्गुरु कबीर की निर्वाण स्थली है, ठीक उसके सामने 1955 में 27 एकड़ में क्षेत्रीय श्री गांधी आश्रम के स्थापना की गई थी। बुनकर बाहुल्य क्षेत्र में गांधी आश्रम की स्थापना का उद्देश्य था कि यहां के लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त हों। साथ ही लोगों को महात्मा गांधी के विचारों-मूल्यों से जोड़ा जा सके।

यूपी का तीसरा क्षेत्रीय संचालन केंद्र था मगहर
सिलाई इंचार्ज शंकर यादव बताते हैं कि मगहर गांधी आश्रम यूपी का तीसरा क्षेत्रीय संचालन केंद्र था। यह सेंटर वर्ष 1990 तक अपने चरमोत्कर्ष पर था। उस समय इस संस्था में 900 कर्मचारी कार्य करते थे। काफी समय तक बहराइच, बस्ती, लखनऊ, गोंडा, गोरखपुर, देवरिया जिले के गांधी आश्रमों का संचालन यहां से हुआ करता था।

महिलाएं लाती थीं सूत, बुनकर बनाते थे कपड़े
इस आश्रम के माध्यम से हजारों लोगों को परोक्ष रूप से पारस्परिक रोजगार मिलता था। आसपास के सैकड़ों गांवों की महिलाएं यहां से रूई ले जाकर घर से सूत कातकर ले आती थीं। जो सूत इकट्ठा होता था उसे आस-पास के बुनकर को कपड़ा तैयार करने के लिए दिया जाता था। बुनकर सूत ले जाकर कपड़ा बुनते थे और कपड़ा बुनकर दे जाया करते थे।

सैकड़ों हुनरमंद यहां करते थे काम
शंकर यादव बताते हैं कि बुनकरों से जो कपड़ा वापस केन्द्र पर आता था उस पर यहां रंगाई व छपाई हुआ करती थी। तरह-तरह के डिजाइनदार कपड़े तैयार होते थे। इन तैयार कपड़ों को पूर्वांचल व लखनऊ तक के गांधी आश्रमों को भेजा जाता था।

कपड़े ही नहीं अन्य उत्पाद भी होते थे तैयार
श्री यादव ने बताया कि गांधी आश्रम सिर्फ खादी कपड़े तैयार करने तक ही सीमित नहीं था। यहां अन्य उत्पाद भी तैयार होते थे। आश्रम में कबीर ब्रांड का कपड़ा धोने का साबुन, नीम सोप के नाम से नहाने वाले साबुन का उत्पाद होता था। अर्चना ब्रांड की अगरबत्ती बनाई जाती थी। बैलों के माध्यम से कोल्हू के द्वारा शुद्ध सरसों का तेल पेरा जाता था। इन उत्पादों की काफी मांग रहती थी। इसके अलावा यहां के तौलिये की मांग पूरे भारत में थी। इनसे सैकड़ों लोगों को रोजगार मिला था। ये सब उत्पाद अब पूरी तरह बंद हो चुके हैं।

फर्नीचर बनाकर चला रहे हैं आजीविका
वर्तमान में गांधी आश्रम परिसर में गिरे पेड़ों की लकड़ियों को चीरकर कारीगर चौकी, स्टूल, मेज आदि बनाते हैं। उसकी बिक्री से होने वाली थोड़ी-बहुत आमदनी से कुछ कर्मचरियों की आजीविका चल रही है।

कश्मीर और पश्चिम बंगाल भेजा जाता था गांधी आश्रम का उत्पाद
आश्रम के कर्मचारी इंद्रेश कुमार बताते हैं कि यहां के कपड़े व अन्य उत्पाद गैर प्रदेश भेजे जाते थे। उसके बदले वहां का उत्पाद यहां मंगाया जाता था। यहां से तैयार खादी का कपड़ा कश्मीर भेजा जाता था। उसके बदले वहां से तैयार किया गया ऊनी कपड़ा यहां आता था। जिसकी काफी मांग रहती थी। इसी तरह से यहां का कपड़ा पश्चिम बंगाल जाता था। वहां से सिल्क का कपड़ा आयात किया जाता था। गांधी आश्रम का मटका सिल्क आज भी काफी प्रसिद्ध है।

सिलाई बंद हुई तो बहुत लोग हो गए बेरोजगार
सिलाई इंचार्ज शंकर यादव बताते हैं कि यहां रंगाई छपाई के बाद कपड़ों की सिलाई भी होती थी। कुर्ता-पायजामा, जैकेट व अन्य कपड़े तैयार होते थे। सिले-सिलाए कपड़े बाहर भेजे जाते थे। सिलाई का काम बंद होने से तो बहुत से लोग बेरोजगार हो गए। काफी संख्या में कामगार बेकार से हो गए हैं। इससे उनके सामने रोजी-रोटी का संकट गहराता जा रहा है। वर्तमान में 28 की संख्या में ही कर्मचारी बचे हैं। जो किसी तरह अपने वेतन की व्यवस्था कर पा रहे हैं।